पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है- परि + आवरण = पर्यावरण
पर्यावरण का अर्थ है - सभी जीवधारियो तथा वनस्पतिका चारों ओर पाया जाने वाला आवरण
। पर्यावरण में पृथ्वी के जैविक तथा अजैविक घटकों को सम्मिलित किया जाता है।
पर्यावरण संरक्षरण अधिनियम 1986
- पर्यावरण किसी जीव के चारो तरफ घिरे भौतिक तथा जैविक दशाओं
तथा उनके साथ अन्तःक्रिया को सम्मिलित करता है। पर्यावरण कहलाता है।
ए.जी. टेन्सले - प्रभावकारी दशाओं का सम्पूर्ण योग है। जिसमे सभी प्रकार के
जीव निवास करते है। पर्यावरण कहलाता है।
विशकोष - पर्यावरण के अंतर्गत उन सभी प्रकार की दशाये, संगठन, तथा प्रभावों को सम्मिलित किया जाता है। जो किसी भी जीव, प्रजाति के उद्भव, विकास तथा मृत्यु को प्रभावित करता है।
पर्यावरण की विशेषताये-
(i) पर्यावरण का निर्माण जैविक तथा अजैविक घटको से हुआ है।
(ii) जीव के चारों ओर की वस्तुएँ पर्यावरण का निर्माण करती है।
(iii) पर्यावरण सदैव परिवर्तनशील है।
(iv) पर्यावरण के प्रति जीवों में अनुश्लता पायी जाती है।
(v) पर्यावरण स्वपोषण तथा स्वनियंत्रण पर आधारित।
(vi) पर्यावरण के अंतर्गत विशिष्ट मौलिक क्रियाएं कार्यरत होती
है।
(vii) पर्यावरण में यार्थिक एकता के साथ -साथ क्षेत्रीय विविधताा
भी परिलक्षित होती है।
(viii) पर्यावरण पर जैव जगत का निवास पाया जाता है।
(ix) पर्यावरण में जीवों में परस्पर सहवास अनिवार्य लक्षण।
(x) पर्यावरण में संसाधनों का भंडार है।
(xi) पर्यावरण का प्रभाव दृश्य और अदृश्य दोनों रूपों में है।
पर्यावरण
के संघटक या संरचना:- पर्यावरण के संघटक दो प्रकार के होते है-
(a) भौतिक या अजैविक संघटक या (b) जैविक संघटक
भौतिक संघटक
(अजैविक संघटक) (जैविक संघटक)
स्थलीय
संघटक पादप
वायुमंडल
संघटक जीव
जलीय
संघटक सूक्ष्मजीव
पर्यावरण
में ही जीव जंतुओं का जीवन संभव है। यह पर्यावरण् अनेक कारको/घटको से मिलकर बना
है। जिसका मनुष्य तथा जीव जन्तुओं पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
भौतिक
घटक में स्थलमडल तथा वायुमंडल तथा जलमंडल को शामिल किया जाता है। तथा जैविक घटक
में पादप जीव तथा सूक्ष्मजीव को शामिल किया जाता है इनका निश्चित जीवकाल होता है।
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(i) स्थलीय संघटक - पृथ्वी के 29% भाग पर स्थल मंडल का विस्तार है इसके अंतर्गत पृथ्वी की
आंतरिक संरचना, भू
आकृतिक या स्थलरूप, शैल
तथा खनिज आदि।
2. वायुमंडल संघटक - इसमें वायुमंडलीय गैस, सूर्यताप, वायुमंडलीय परते, वायुदाब व आर्द्रता, हवायें आदि।
3. जलीय संघटक - धरातीय जल, भूमिगत जल तथा महासागरीय जल।
जैविक संघटक –
(a) पादपः पौधे जैविक पदार्थो का निर्माण करते है। ये प्राथमिक
उत्पाद तथा स्वपोषी होते है।
(b) जीव - स्वपोषित तथा परपोषित होते है। परपोषित जीव तीन
प्रकार के होते है।
(1) मृतजीवी
(2) परजीवी
(3) प्राणीसमभोजी
(c) सूक्ष्मजीव - इसमे कवक तथा शैवाल शामिल किया जाता है। ये सड़े गले पदार्थो
का अपघटन करते है।
पर्यावरण के क्षेत्र -
(a) भूपारिस्थितिक तंत्र - पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण सभी जैविक तथा अजैविक घटकों
को आपस में अंतक्रिया करने से होता है। पारिस्थितिक तंत्र कृत्रिम तथा प्राकृतिक
दो प्रकार का होता है। पारिस्थितिक नियम के अंतर्गत - ऊर्जा का संरक्षण नियम, ऊर्जा प्रवाह का द्वितीय नियम, एकरूपता का नियम, आदि का अध्ययन पर्यावरण के अंतर्गत आता है।
(b) पारिस्थितिक तंत्र की क्रियाशीलता:- पारिस्थितिक तंत्र में यौगिक ऊर्जा के निवेश से जैविक तथा
अजैविक पदार्थो के मध्य क्रियाशीलता उत्पन्न होती है। पारिस्थितिक तंत्र में
पदार्थो का संचरण होता है।
(c) पारिस्थितिक में कालिक परिवर्तन - इसके अंतर्गत पादपों व जंतुओं का उदभव, उनका क्रमिक विकास तथा प्रजातियों की चरम स्थिति तथा उसका
विलोपन आदि का अध्ययन किया जाता है।
(d) पारिस्थितिक में स्थानिक परिवर्तन - इसके अंतर्गत पादप व जंतुओं का विसरण, पादप व जंतुओं का विश्व वितरण तथा प्रादेशिक तथा स्थानीय
स्वर पर पारिस्थितिकीय विभिन्नतायें तथा मानव-जनित पास्थितिकीय परिवर्तन आदि का
अध्ययन किया जाता है।
(e) मनुष्य तथा पर्यावरण प्रकम - पर्यावरणीय प्रकमों तथा मानव के क्रियाकलापों के प्रभावों
का अध्ययन पर्यावरण का महत्वपूर्ण पक्ष है। क्योंकि मनुष्य की बढ़ती आर्थिक
क्रियाओं ने विभिन्न पर्यावरणीय प्रकमों को बड़े पैमाने पर परिवर्तित क्रिया। जिस
कारण प्राकृतिक परिस्थिति तंत्र में अवस्था उत्पन्न हो गयी है।
(f) पर्यावरण अपनयन तथा प्रदूषण - मानव की बढ़ती हुई गतिविधियों के कारण पर्यावरण/अवनयन की
प्रक्रियाएं तथा प्राकृतिक अनुपात में बदलाव हो रहा है। जिससे पर्यावरण तथा वायु
प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण तथा ठोस अपशिष्ट प्रदूषण।
(g) भूमण्डलीय पर्यावरणीय समस्याएँ - इसके अंतर्गत उन पर्यावरणीय समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। जो मानवीय प्रक्रियाओं
द्वारा उत्पन्न होती है । जो वायुमंडल की रासायनिक संरचना में बदलाव करती है।
जैसे-ओजोन क्षरण तथा हरितगृह प्रभाव आदि।
(h) पर्यावरणीय आपदा एवं प्रकोप - इसके अंतर्गत पार्थिक व वायुमंडलीय प्राकृतिक तथा मानव जनित
आपदाएँ तथा प्रकोपो को सम्मिलित किया जाता है। तथा आपदाओं तथा प्रकोपो का वर्गीकरण
बाढ़, सूखा, हिम पिघलन तथा चक्रवात परिणामों का अध्ययन है।
(i) पर्यावरण प्रबंधन - पर्यावरण के अध्ययन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं इसके
अंतर्गत पर्यावरण प्रबंधन की विधियां, उपागम तथा जैव विविधता तथा प्रबंधन तथा जीवमंडल भंडार आदि
का अध्ययन किया जाता है।
पर्यावरण के आयामः- पर्यावरण के आयाम से तात्पर्य पर्यावरण के विस्तार से है।
जो जैविक घटको के चारों ओर मौजूद हैं पर्यावरण के आयामों को भौतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक तथा मनोवैज्ञानिक आदि
रूपों में देखा जाता है। पर्यावरण के आयामों का विस्तृत अध्ययन -
(i) पर्यावरण का भौतिक आयाम - पर्यावरण की भौतिक शास्त्रियों, प्रक्रियाएं तथा तत्व जो मानव को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित
करते है। पर्यावरण के भौतिक आयाम कहलाता है।
(a) भौतिक पर्यावरण की शक्तियां - शाक्तियों के अंतर्गत सौर ताप तथा पृथ्वी की दैनिक तथा
वार्षिक गतियों तथा गुरूत्वाकर्षण तथा ज्वालामुखी तथा भूपतल की गतियां आदि
सम्मिलित किये जाते है। तथा इन शम्बियो ताप पृथ्वी पर अनेक प्रकार की क्रियाएं तथा
प्रतिक्रियाएं होती है। जिसमें पर्यावरर्ण के तत्व उत्पन्न होते है। तथा इन सबका
मानव की क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है।
(b) भौतिक पर्यावरण की प्रक्रियाएं - भौतिक पर्यावरण की प्रक्रियाओं में भूमिका अपक्षय तथा अपरदन
तथा अवसादीकरण तथा ताप विकिरण तथा चालन, ताप वहन तथा वायु व जल में गतियों का पैदा होना। तथा सभी
मौलिक पर्यावरण की प्रक्रियाअें का मानव के क्रियाकलापों का प्रभाव पड़ता है।
(c) भौतिक पर्यावरण के तत्व - भौतिक शाक्तियों तथा प्रक्रियाओं के फलस्वरूप धरातल पर
उत्पन्न तत्व इसमें शामिल है। जैसे - मौसम और जलवायु, मिट्टी व चट्टाने, खनिज व धरातलीय, महासागर तथा तटीय आदि क्षेत्र।
उपरोक्त
सभी घटक मिलकर पर्यावरण के भौतिक आयाम का निर्धारण करते है। इनका अस्तित्व मानव के
कार्यो से स्वतंत्र है, परंतु
ये मानव जीवन पर प्रभाव डालते है। उपरोक्त सभी घटकों में संतुलन बना रहता है। तो
मानव का संतुलित विकसित होते है। वही इनके प्राकृतिक आवास में परिवर्तन होता है।
तो पर्यावरण प्रदूषण की स्थिति उत्पन्न होती है। और जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता
है।
पर्यावरण का सांस्कृतिक आयाम - पर्यावरण के सांस्कृतिक आयाम के अंतर्गत मानव द्वारा
संचालित और सामाजिक क्रियाओं को निर्देशित करने वाले तत्व शामिल है जो मानव के
रहन-सहन तथा कार्यकुशलता को सुचारू बनाते हैं मानव पर्यावरण में स्वविकसित तकनीक
सहायता में संशोधन तथा परिवर्तन करता है। और आवश्यकता के अनुरूप बनता है-
उदाहरण - मानव भूमि को जोतकर खेती करता है। और जंगलो को साफ करता है।
और सड़के, नहरे आदि बनता है।
वह
इसके फलस्वरूप वह एक पर्यावरण को जन्म देती है। जिसे मानव निर्मित या कृत्रिम
पर्यावरण कहते है। यही मानव पर्यावरण के सांस्कृतिक आयाम है।
(1) पर्यावरण के सांस्कृतिक आयाम की शक्तियाँ - मानव स्वयं, क्षेत्र की जनसंख्या उसका वितरण और घनत्व, स्त्री, पुरूष, अनुपात, आयु वर्ग तथा प्राजातीय संरचना, शरीरिक स्वास्थ्य तथा मानसिक क्षमता आदि सांस्कृतिक पर्यावरण की शक्ति में शामिल है।
(2) पर्यावरण के सांस्कृतिक आयाम की प्रक्रियाएँ - इसमें व कार्य शामिल है जिसमें मानव तथा मानव समूह पर्यावरण
से सामंजस्य स्थापित करते है। जैसे पोषण, सामूहीकरण तथा प्रभुत्व स्थापना, प्रवास तथा पृथक्करण तथा अनुक्रमण आदि। इन प्रक्रियाअें का
मानव निरंतर विकास करता रहता है।
(3) पर्यावरण के सांस्कृतिक आयाम के तत्व - इसके अंतर्गत लोकरीतियाँ रीति-रिवाज आदि। विवाह, मान्यताएं तथा पुलिस एवं कानून व्यवस्था, विद्यालय कार्यालय, व्यवसाय, उद्योग, राजनीति, शैक्षणिक तथा मनोरंजन तथा सांस्कृतिक भू-दृश्य आदि।
पर्यावरण
के सांस्कृतिक आयाम का मानव पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रभाव पड़ता है। इसमें संतुलन
मानव के अस्तित्व की रक्षा, विकास
तथा प्रगति में सहायक है। वही इनमें असंतुलन होने पर मानव के अस्तित्व पर
नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जो मानव की प्रगति में बाधक है।
पर्यावरण का मनौवैज्ञानिक आयाम - मनोवैज्ञानिक पर्यावरण संबंध व्यक्ति के आंतरिक भाग से है।
कृत्रिम तथा पर्यावरण (प्राकृतिक) और मानव व्यवहार के मध्य पारस्परिक संबंधों का
अध्ययन करना पर्यावरण के मनोवैज्ञानिक आयाम की विषय वस्तु है। इसके अंतर्गत ऐसे
सिद्धांत अनुसंधान तथा अन्पास जो पर्यावरण के साथ मानव संबंधों को बेहतर बनाते है।
इसमें मानवीय क्रियाओं के पारिस्थितिकी परिणाम की समीक्षा की जाती है।
पर्यावरणीय
मनोविज्ञान पर्यावरण तथा मानव व्यवहार को अलग-अलग अवयव के रूप में स्वीकार्य न कर
एक इकाई के रूप में मानकर अध्ययन करने पर बल देता है।
इस
प्रकार व्यक्ति का मनौवैज्ञानिक पर्यावरण तथा उसके मनोवैज्ञानिक यथार्थ का संपूरक
होता है। तथा इसमें वे सभी संभव तत्व सम्मिलित है। जो व्यक्ति के व्यवहार को
प्रेरित तथा प्रभावित करते है। उदाहरण- पशुपालक जो गांव में रहता है उसका पशुओं के
प्रति व्यवहार सकारात्मक होता है। तथा इसके प्रति उत्तर में पशु भी उसके प्रति
हिंसक व्यवहार नही दिखाता है। अर्थात पशुपालक का यह व्यवहार स्वभाविक रूप से
पर्यावरण को प्रभावित करता है।
पर्यावरण का आर्थिक आयाम - आर्थिक पर्यावरण एक जटिल अवधारणा है इस प्रकार आर्थिक
पर्यावरण विभिन्न कार्यो का एक संयोजन है। जो वाणिज्य व्यापार पर अपना प्रभाव
डालते है। आर्थिक पर्यावरण उन सभी कारकों को परिष्कृत करता है जो वाणिज्यिक तथा
उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित करता है। आर्थिक पर्यावरण में आर्थिक नीतियां, प्राकृतिक व भौगौलिक दशाएं तथा प्रौद्योगिकी तथा तकनीकी
दशाएं आदि। ये तत्व अर्थव्यवस्था के चारों तरफ दिखायी देता है जो प्रत्यक्ष व
अप्रत्यक्ष रूप से मानव जीवन पर प्रभाव डालता है।
यदि
आर्थिक पर्यावरण प्रतिकूल हो तो देश की प्रगति को बाधित करता है जिससे गरीबाी, बेरोजगारी तथा भूखमरी तथा जनसंतोष आदि को बढ़ावा मिलता है।
आर्थिक
पर्यावरण स्थिर नही रहता है। साथ ही देश की आंतरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय
पारिस्थितियां को प्रभावित करता है।
पर्यावरण का शैक्षणिक आयाम - शिक्षा से संबंधित उपकरणों का समृद्ध शैक्षणिक आयाम कहलाता
है। इसके अंतर्गत पर्यावरणीय समख्यों का अध्ययन, निवारण की विधियों को खोजना आम जनता को इससे अवगत करना तथा
पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान हेतु उपलब्ध विधियों को व्यावहारिक रूप में लागू कर
परिणामों की समीक्षा करना आदि शामिल है।
प्रारंभिक
काल में मानव पर्यावरणीय तत्वों को अज्ञात शक्ति के रूप में देखता था। जिसे वह वह
पद्धति के रूप में परिभाजित कर पूज्नीय मानता था। वैज्ञानिक व तकनीकी विकास के बाद
जब पर्यावरण तत्वों में मारनव हस्तक्षेप से आवंछित बदलाव हुये तथा पर्यावरणीय
समस्याएं उत्पन्न हुई। मानव ने इन पर्यावरणीय समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन
में अध्ययन किया। और घटकों को समझने का प्रयास किया। साथ ही पर्यावरणीय समस्याओं
का अध्ययन किया और पर्यावरण के प्रति मानव के दायित्वों को समझने का प्रयास किया।
यह सम्पूर्ण प्रक्रिया पर्यावरण के शैक्षणिक आयाम के अंतर्गत शाामिल है।
भारतीय संदर्भ में पर्यावरण की आवधारणा - पर्यावरण की आपधारणा जिसका आशय हमारे चारों ओर के वातावरण
से है। जिसमें सजीव व निर्जीव सभी प्रकार के स्थल पाये जाते है। चूंकि भारत में
प्राचीन समय से ही पर्यावरण जीवन का हिस्सा है। भारतीय प्राचीन परंम्परा में आकाश, सूर्य चांद तथा पृथ्वी, जल, वायु
को सहचर्य के रूप में देखा गया है। साथ ही प्राचीन भारतीय दर्शन में यह स्पष्ट है।
मानव शरीर पंचतत्व से मिलकर बनी है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश से हुई है। अर्थात पर्यावरण तथा प्राणी एक
दूसरे पर आश्रित है। यही कारण मानव का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव जाति
का इतिहास।
भारतीय
संस्कृतिका अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि समुद्र मंथन के दौरान कल्पवृ़क्ष
निकलना, साथ ही कामधेनू तथा ऐरावत हाथी का संरक्षण आदि इसके
महत्वपूर्ण उदाहरण है। साथ ही प्रचीन समय में सिंधु घाटी सभ्यता में मोहरो पर पशुओ
तथा वृक्षों का चिन्ह, अशोक
द्वारा राज्य चिन्ह के रूप में पशुओं व वृक्षों को स्थान देना। मध्यकाल में
पर्यावरण संरक्षण के प्रमाण मिलते है। जैसे-जैसे आधुनिक काल में पर्यावरणीय
समस्याएँ उत्पन्न हुयी वैसे ही पर्यावरण संरक्षण हेतू संगठन नीतियां व कानून
स्थापित होने लगे। संविधान निर्माण के पश्चात भी संविधान में तथा अन्य कानूनी
विधियो द्वारा पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा स्पष्ट की गयी।
इस
प्रकार भारतीय समाज तथा चिंतको ने पर्यावरण संरक्षण की बात को स्पष्ट किया और
पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपने कत्र्तव्यों को स्पष्ट किया। जहां वृक्ष की तुलना
पुत्र से तो नदी को मां का दर्जा दिया गया।
भारतीय मान्यताएं पर्यावरण के संदर्भ में -
जल
और वन के संदर्भ में - प्राचीन समय में पृथ्वी का आधार जल और वन को माना गया।
इसलिए वृक्ष तथा जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा गया कि ‘‘वृक्षाद वर्षति पर्यन्तः
पर्यन्यादन्न सम्भवः अर्थात वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है।’’
चाणक्य
ने भी अरण्यपालो की नियुक्ति पर बल दिया। साथ ही कबीर ने यह कहा कि पाती तोरै
मालिनी, पाती-पाती जीउ-अर्थात मालिनी पतियाँ तोड़ती है पर ये नही
जानती कि हर एक पती पर जीव है।
जीव-जंतु
के संबंध में - प्राचीन समय से ही मानव जीव जंतुओं की पूजा करता था। मनुष्य तथा
पशु एक दूसरे पर निर्भर है। गाय, चूहा, हाथी, शेर तथा सर्प की पूजा होती है। इन सभी परंम्पराओं का
उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण करना है।
त्यौहार
व संस्कृति के रूप में - भारतीय संस्कृति परंपरा में प्रकृति संरक्षण पर बल दिया
गया। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक जीव के कल्याण पर बल दिया गया। जितने भी
त्यौहार व रीति-रिवाज चाहे वे मकर संक्राति, बसंत पंचमी गुड़ी पडवा, गोवर्धन पूजा, शरद पूर्णिमा आदि। साथ ही तुलसी व पीपल की पूजा तथा सूर्य
को जल चढ़ाना व चंद्रमा की पूजा आदि।
मानवीय गति विधियो का पर्यावरण पर प्रभाव - मानव प्रकृति को तथा प्रकृति मानव को पूरक रूप से प्रभावित
करती है। लगातार हो रही जनसंख्या वृद्धि। पर्यावरण प्रदूषण तथा मृदा निम्नीकरण तथा
जल और वायु प्रदूषण के कारण पर्यावरण को क्षति हो रही है।
(1) खनन का पर्यावरणीय प्रभाव - पृथ्वी धातुओ और खनिज संसाधनो से परिपूर्ण है। संसाधनो के
उत्खनन से पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रही है। खनिजों के निष्कर्षण के दौरान
खनन होने वाले खनिज अपशिष्टो का ढेर जमा हो जाता है।
§ खनन क्षेत्रों के दुर्गमया वनीय क्षेत्रों में होने के कारण
वनोन्मूलन जैसे समस्याएं उत्पन्न हो रही थी।
§ संसाधनों के अत्यधिक दोहन से वैज्ञानिको द्वारा इसके समाप्त
होने की आशंका है।
(2) औद्योगीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव - उद्योगो से निकलने वाली विषैली गैसो से वायु प्रदूषण की
समस्या तथा अपशिष्टों से जल प्रदूषण तथा मृदा प्रदूषण जैसे समस्याएं निकलती है।
जिससे जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
§ उद्योगों में प्रयोगा होने वाली जीवाशम ईधनों से वायुमंडल
का CO2उत्सर्जन होता है। जिससे ग्लोबल वार्मिंग।
§ उद्योगो में कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त होने के कारण
प्राकृतिक संसाधनों को शीघ्र समाप्त कर दिया जाता है।
(3) आधुनिक कृषि का पर्यावरण पर प्रभाव - बढ़ती जनसंख्या की मांग हेतु खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने
के लिए वन भूमि को कृषि भूमि में बदला जाता है। जिससे पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न
हो रही है।
§ कृषि क्षेत्र के बढ़ते हुए बाजारीकरण के कारण उच्च उत्पादकता
वाली फसलों ने पारम्पारिक फसलों वाली कृषि का स्थान ले लिया जिससे मृदा में पोषक
तत्वो का हा्रस देखा गया।
§ कृषि में अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से परागण की
क्रिया धीमी हो जाती है। जिससे खाद्य श्रृंखला प्रभावित हो जाती है।
(4) शहरीकरण का पर्यावरण पर प्रभाव -
(i) शहरी निवास तथा अधोसंरचना जैसे सड़क निर्माण तथा उद्योगो की
स्थापना आदि हेतु उपजाऊ भूमि का उपयोग हो रहा है। जिससे खाद्य संकर प्रभावित होता
है।
§ शहरी क्षेत्रों के समीप उद्योगो को स्थापित किया गया जिससे
पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभव पड़ा।
§ शहरों में परिवहन के साधनों से पर्यावरण पर नकारात्मक
प्रभाव पड़ रहा था जिससे वायु प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण
§ शहरी क्षेत्रों में निर्माण कार्यो में कंक्रीट व सीमेंट की
अधिकता के कारण सूर्यातप का अधिक अवशोषण होता है। जिससे नगर उष्मा द्वीप के रूप
में अवशोषित हो रहे है।
(5) आधुनिक प्रौद्योगिकी का पर्यावरण पर प्रभाव –
(1) मानव समाज में प्रौद्योगिकी की भूमिका अति महत्वपूर्ण है।
जहां मनुष्य द्वारा नए बांधो का निर्माण किया जाता है। जिसके कारण भूकंप, वन तथा आवासीय क्षेत्र तथा जलमग्न आदि पारिस्थितिक संतुलन
बिगड़ जाता है।
(2) सिंचाई के साधनो जैसे - पम्प, रमूबल आदि के प्रयोग से भूमिगत जल स्तर में कमी आयी है। और
मृदा की लवणता समस्या उत्पन्न हो जाती है।
(3) रासायनिक संयंत्रों से निकलने वाली विषैली गैसो के कारण
वायु प्रदूषण तथा मानवीय स्वास्थ्य हेतु गंभीर समस्याएं उत्पन्न होती है।
(4) अजैवनिम्नकरणीय पदार्थो के उत्पादन तथा नाभिकीय तथा ई
अपशिष्ट हेतु खतरा उत्पन्न हो रहा।
(5) रेफ्रीजरेटर तथा कण्डीशनरों में प्रयुक्त तरल पदार्थो तथा
सुपरसोनिक जेट विमानो से निकलने वाली नाइट्रोजन के ऑक्साइड के कारण 03 का आक्सीजन में परिवर्तन होने से ओजोन का क्षरण होता है।
इस
प्रकार पर्यावरणीय घटनाये-ः भोपाल गैस त्रासदी, यूक्रेन की चेनोबिल तथा जापान की फुकुशिमा घटना तथा आधुनिक
प्रौद्योगिकी की असफलता से निर्मित परिणाम।
पर्यावरण से संबंधित नैतिकता व मूल्य:- पर्यावरणीय नैतिकता व्यावहारिक दर्शनशास्त्र की एक शाखा है।
जिसके अंतर्गत आसपास के पर्यावरण के संरक्षण से संबंधित नैतिक समस्याओं का अध्ययन
किया जाता है।
पर्यावरणीय
नैतिकता दर्शनशास्त्र का वह भाग है जो मानव तथा प्राकृतिक पर्यावरण के बीच नैतिक
संबंधों को स्थापित करता है।
पर्यावरणीय नैतिकता के दृष्टिकोण:-
(1) मानव आधारित दृष्टिकोण:- इसके अंतर्गत मानव द्वारा स्वयं के
लाभ हेतु प्रकृति के परिवर्तन करके उपलब्ध साधनों को स्वयं के अनुकूल बनाया जाता
है।
(2) जीव केंद्रित दृष्टिकोण:- यह दृष्टिकोण मानव को एक प्रबंधक
की भूमिका में विभिन्न जीवों के सम्मान व संरक्षण हेतु सहभागी बनाया जाता है।
(3) अर्थशास्त्री दृष्टिकोण:- इसके अंतर्गत यह माना जाता है कि
प्रकृति के सभी पदार्थो में मूल्य अंतनिर्हित है। ऐसे में प्रकृति के साथ नैतिक
संबंध उसकी सुरक्षा को भी अनिवार्य मानता है।
(4) पारिस्थितिकी केन्द्रित दृष्टिकोण:- यह जीवों से भी आगे का
एक समग्र दृष्टिकोण है। जिसके द्वारा मानव इस गृह को नष्ट कर सकता है।
पर्यावरणीय नैतिकता से जुड़े मुददे
(a) प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग:- प्राकृतिक संसाधनों तथा
के दुरूपयोग तथा अत्यधिक दोहन से पर्यावरण में असंतुलन में असंतुलन की स्थिति
निर्मित हो जायेगी। अतः प्रकृति के साथ सहयोग एवं समंवय स्थापित।
(b) वनों का विनाश:- बड़े-बड़े उद्योगो तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थापना हेतु
वनों की अंधाधुंध कराई जाती है। इसके अलावा कृषि के लिए वनों का सफाया किया जा रहा
है। जिससे जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
(c) पर्यावरण प्रदूषण:-
(d) संसाधनो पर समतापूर्ण अधिकार:- प्राकृतिक संसाधनों पर सभी का समान अधिकार है। परंतु आंशिक
रूप से मजबूत लोगो द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अधिकांश दोहन एवं दुरूप्रयोग किया
जा रहा है। जबकि वंचित वर्गो द्वारा इनका उपयोग नही कर पा रहा है।
(e) पशु अधिकार:- जीव-जंतु तथा पेड़-पौधों का भी संसाधनो पर पूर्ण अधिकार है।
अर्थात नैतिकता के आधार पर मारनव को प्राकृतिक संसाधनों का दुरूप्रयोग रोकना
चाहिए। पशुओं को भी सम्मान व गरिमामय जीवन आवश्यक है।
(f) भावी पीढ़ी के लिए संसाधनों का वर्गीकरण:- संसाधनों तथा
जीवाशम ईधन का दुरूप्रयोग से पर्यावरण में खतरा उत्पन्न हो रहा है। जिस कारण
संसाधनों का उपयोग के साथ-साथ उनका संरक्षण भी महत्वपूर्ण है। अर्थात सभी संसाधनों
का निर्वाह पूर्ण उपयोग किया जायेगा।
(g) पर्यावरणीय शिक्षा तथा जागरूकता का नैतिक आधार:- पर्यावरण
जागरूकता एवं संसाधनों के प्रति लोगों को जागरूक किया जाता है। साथ पर्यावरणीय
संबंधों नैतिक मुद्दों को जनता के मध्य लाकर उसके प्रति चेनता का प्रसार कर सकते
हैं।
कॉर्पोरेट पर्यावरणीय नैतिकता:- कॉर्पोरेट पर्यावरणीय नैतिकता का वह गुण है जो व्यावसायिक
तथा औद्योगिक क्षेत्र को अपनी गतिविधियां इस प्रकार संचालित करने के लिए प्रेरित
करता है। जिससे पर्यावरणीय क्षति को कम किया जा सके।
§ उधोगो से निकलने वाले अपशिष्ट का समुचित उपचार।
§ पर्यावरणीय मानको तथा नियमों का पालन करना।
§ शहरों में उधोगों की स्थापना।
§ उधोगों में हरित क्रांति का उपयोग।
§ वृक्षारोपण तथा अन्य रचनात्मक क्रियाकलापों के माध्यम से
पर्यावरण संरक्षण हेतु जन-जागरूकता फैलना।
§
पर्यावरणीय मूल्य - पर्यावरणीय मूल्य से आशय उन विचारों और क्रियाओं से है।
जिससे पर्यावरण के प्रति मानव का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। पर्यावरणीय मूल्यों का
तात्पर्य उन सिद्धांतो तथा दिशा-निर्देश से है जो मानव तथा पर्यावरण के बीच की
क्रियाओं और प्रतिक्रिया को दर्शाते है।
हमे
पर्यावरण के प्रति मानव केन्द्रित दृष्टिकोण नही अपनाना चाहिए। साथ ही पर्यावरण के
प्रति रूझान पद्धति केंद्रित दृष्टिकोण होना चाहिए। जिसमें पृथ्वी को स्वामी मानकर
उसके उनवनपन को रोकना चाहिए जिससे स्वच्छ तथा स्वस्थ पर्यावरण की नींव रखी जा सके।
पर्यावरणीय नैतिकता तथा मूल्यो को बनाये रखने हेतुः-
(1) जनसंख्या नियंत्रण
(2) प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग रोकना।
(3) पर्यावरण संरक्षण की पारस्परिक गतिविधियों को व्यवहार।
(4) पर्यावरर्ण संरक्षण नीति के तहत दंड व पुरस्कार।
(5) पर्यावरणीय पशुओं के प्रति मानवीय गुण अपनाना।
जैव विविधता
जैव
विविधता शब्द का प्रयोग वाल्टर जी. रोजन ने 1986 में किया। जैव विविधता शब्द जैवीय विविधता से जुड़ा हुआ है।
किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र के परिवेश में पाये जाने वाले सजीव जीवों की
विभिन्नताओं तथा विभिन्न जीवों की प्रजातियों में पायी जाने वाली विभिन्नताओं को
जैव विविधता कहा जाता है।
पृथ्वी सम्मेलन (रियो-डी-जेनरियो - 1992)
- स्थालीय, महासागरीय परिस्थितिक तंत्रों में उपस्थित जीवों के बीच
विभिन्नता को ही जैव विविधता कहा जाता है। इसमे एक जीव प्रजाति के अंदर ही पायी
जाने वाली विविधता, विभिन्न
जातियों के मध्य विविधता तथा पारिस्थितिकी विविधता सम्मिलित है।
जैव विविधता के प्रकारः-
(1) आनुवांशिक विविधता - आनुवांशिक जैव विविधता से आशय किसी विशिष्ट प्रजाति के
विभिन्न सदस्यों में भिन्न-भिन्न आनुवाशिक लक्षणों के उपस्थित होने अथवा एक ही
प्रजाति के जीवों में जीन में होने वाले परिवर्तनो से । यह किसी एक प्रजाति में
उपस्थित जीन विविधता को दर्शाती है।
(2) प्रजातीय विविधता - प्रजातीय विविधता से आशय एक समुदाय या परितंत्र में उपस्थित
पादप व जंतु प्रजातियो को विभिन्न प्रजातियों से है। प्रजातीय विविधता जितनी
समृद्ध होगी जैव विविधता भी उतनी ही समृद्ध होगी। इसका प्रमुख उदाहरण -विषुवतीय
रेखीय वर्षा वन है जिन्हे प्रकृति जैव-विविधता हॉटस्पॉट कहा जाता है।
(3) सामुदायिक विविधता (पारिस्थितकीय विविधता) -
किसी
स्थान विशेष के एक समुदाय के जीव-जंतुओ व वनस्पतियों तथा इससे समुदाय के
जीव-जंतुओं व वनस्पतियों के मध्य पायी जाने वाली विविधता को सामुदायिक विविधता
अथवा परितंत्रीय विविधता कहा जाता है। जैसे - घास के मैदान, पर्वतीय आवास क्षेत्र तथा मरूस्थल क्षेत्र
जैव विविधता मापन - जैव विविधता के मापन से तात्पर्य पर्यावरण में विभिन्न
प्रजातियेां की संख्या तथा उनकी समृद्धि का आंकलन जैव विविधता का मापन है। इनकी
शुरूआत 1972 में आर.एच. व्हिटेकर ने की है। जैव विविधता का मापन
प्रजातीय प्रचुरता तथा प्रजातीय एकरूपता के आधार पर किया जाता है।
अल्फा विविधता - किसी एक आवास या क्षेत्र विशेष में पायी जाने वाली
प्रजातियों की कुल संख्या उस क्षेत्र की अल्फा विविधता कहलाती है। इससे यह ज्ञात
होता है कि प्रजातियों की संख्या बढ़ रही है या घट रही है। इसे जीवों की संवृद्धि
का पता चलता है।
बीटा विविधता - किन्ही दो आवासो या दो क्षेत्रों के मध्य पायी जाने वाली
जैव विविधता बीटा विविधता कहलाती है। बीटा विविधता आवासो या समुदायो की एक प्रवणता
के साथ जातियो के विस्थापन की दर से संबंधित है।
गामा विविधता - इसको बड़े भौगोलिक मापक के रूप में उपयोग किया जाता है।
गामा
विविधता एक भौगोलिक क्षेत्र की प्रजाजियों की प्रचुरता को बताती है इसके अंतर्गत
विधमता या भिन्नता का पता चलता हैं।
गामा विविधता - अल्फा या बीटा विविधता गुणनफल का अवभव हैं।
जैव
विविधता का महत्व व मूल्यः-
(1) आर्थिक महत्व:- जैव विविधता आर्थिक रूपसे अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें जीवो
को कृषि तथा खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। फसलों मे जीन का उपयोग करके
प्रतिरोधक क्षमता सुधार किया जा सके।
§ आधुनिक दवाईयो-अफीम तथा मार्कोन तथा दो नैन जैवविविधता की
देन है।
§ जलावन तथा व्यापारिक लकड़ी, औद्योगिक कच्चा माल, तथा खाद्य फसले जो जैव विविधता की देन है।
(2) सांस्कृतिक महत्व:-
प्राकृतिक
विविधता हमें सौंदर्यात्मक आनंद प्रदान करती है। किसी क्षेत्र में पर्यटन को
प्रोत्सहित करती है। इसके द्वारा हम मनोरंजन के अवसर प्राप्त होते है।
§ आध्यात्मिक अनुभव ।
§ मनोरंजन तथा विश्राम ।
§ कला, डिजाइन
तथा उत्प्रेरणा ।
§ पारिस्थितिकी पर्यटन ।
(3) पारिस्थितिक महत्व :- सभी जीव जीवपारिस्थितिकी तंत्र में कोई न कोई किया करते है।
तथा दूसरे जीव की वृद्धि में भी सहायक होते है। वे ऊर्जा भू शसायनिक चुको तथा
परितंत्र का संतुलन बनाये रखने में भी सहायक होते है।
· वायु का शुद्धीकरण
· मृदा निर्माण तथा संरक्षण
· मौसम तथा जलवायु के परिवहन तथा नियंत्रण
· मौसम तथा जलवायु का परिभजिन तथा निंयत्रण
· जलीय चुक का निंयत्रण व क्रियाशीलता
· सौन्दयत्मिक लाभ
· CO2 का अवशोषण
· प्राकृतिक संसाधनो का संग्रहालय के रूप में।
· जल का संरक्षण व सुरक्षा।
(4) वैज्ञानिक महत्वः- जैव विविधता से पृथ्वी पर जीवन के प्रारम्भ तथा विभिन्न जीव
प्रजातियों को समझने में सहायता प्राप्त होती है। इस प्रकार जैव विविधता को बनाये
रखने में विभिन्न जीव प्रजातियो की भूमिका है।
(5) कृषि क्षेत्र में महत्वः- जैव विविधता के माध्यम से कृषि के आनुवांशिक गुणों का तथा
कृषि परितंत्र को मजबूती प्रदान करके सभी प्रजातियो का पोषण करती है।
• जैव विविधता ह्रास के कारण या जैव विविधता का संकट :-
किसी
प्राकृतिक आवास तथा कृषि क्षेत्र, चिड़ियाघर या संरक्षित क्षेत्र से जीवीय समुदाय की विश्ष्टि
प्रजातियो के पूर्णतया विलोपन को प्रजाति विलोपन कहते है। प्रजाति विलोपन मे अनेक
कारण दिखायी देते है जिसमें मानवीय हस्तक्षेप चरम पर है।
कारणः-
(a) आवास विनाश- जलवायु परिवर्तन बढ़ता प्रदूषण स्वर व प्रजातियों के आवास
नष्ट हो रहे है। जिससे प्रजातियां विलुप्त हो रही है या कगार में।
(b) पर्यावरण प्रदूषण- बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण जैव विविधता का क्षरण का एक प्रमुख
कारण बनता जा रहा है। प्रदूषित वायु तथा अम्लीय वर्षा के कारण प्रजातियां विलुप्त
होने की कगार में है। साथ ही प्रजातियों के प्रजनन को प्रभवित करती है जिससे मृदा
के पोषक तथा अम्ल समुद्री जीवो का पतन होता है।
(c) संसाधनो का अतिदोहन - बढ़ती जनसंख्या से जैविक संसाधनों का दोहन लगातार बढ़ता जा
रहा है। मानव, भोजन तथा
आवास हेतु प्रकृति पर निर्भर करता है। लेकिन आवश्यकता ज्यादा होने पर यह संसाधनो
का दुरूप्रयोग किया जा सकता है।
(d) वैश्विक जलवायु परिवर्तन - जलवायु अस्थिरता तथा जलवायु परिवर्तन दोनों के कारण जैव
विविधता का होता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण ओजोन परत का ह्रास तथा जलवायु विभिन्नता उत्पन्न होती है
तथा फसल चक्र तथा द्वीपीय क्षेत्रों में परिवर्तन।
(e) विदेशज वनस्पतियों का विस्तार - विदेशी मूल की वनस्पतियों के विस्तार से जैव विविधता पर
नकरात्मक प्रभाव पडता है इस कारण इन्हे जैविक प्रदूषक की संज्ञा दी जाती है।
विदेशी मूल की प्रजातियां देशी मूल की प्रजातियों को विलुप्त स्थान में पहुंचा
देती है।
(f) वन विनाश - विकास कार्यो तथा कृषि के विस्तार के कारण उष्णकटिबंधीय
देशो में जंगलों को बड़े पैमाने पर नष्ट किया जाता है। जिसके परिणामस्वरूप
उष्णकंटिबंधीय वनों में जैव विविधता का क्षरण हुआ है। तथा भारत के उत्तर व पूर्वी
राज्यों में झू कृषि के कारण जैव विविधता का हा्रस हुआ।
(g) प्राकृतिक आपदाएं - प्राकृतिक आपदाएं - ज्वालामुखी तथा भूकम्प तथा भूस्खलन तथा
जीव-जगत को भी पहुंच रही है। इसी प्रकार बाढ़, सूखा तथा आगजनी तथा महामारी से जैव विविधता को हानि
पहुंचेगी।
(h) अति-चराई - शुष्क तथा अर्धशुल्क क्षेत्रों में चराई जैव विविधता के
क्षरण का मुख्यकारण है।
सह
विलोपन - जब एक प्रजाति विलुप्त हो जाती है तो उससे जुड़ी दूसरी प्रजाति विलुप्त
होने लगती है। यह सह विलोपन कहलाता है।
(i) सह विलोपन - जब एक प्रजाति विलुप्त हो जाती है तो उससे जुड़ी इसकी
प्रजाति विलुपत होने लगती है। यह सह विलोपन कहलाता है।
(j) शोध हेतु प्रजातियों का उपयोग - चिकित्सा शोध तथा वैज्ञानिक शोध हेतु जानवरों को प्राकृतिक
निवास से पकड़ना प्रजाति के लिए खतरा साबित होता है।
(k) सरकारी तंत्र की विफलता
(L) तटीय क्षेत्रों का नष्ट होना।
जैव विविधता संरक्षण - जैव विविधता संरक्षण का आशय, प्रकृति में उपस्थित विविध जीव-जंतुओ तथा अन्य जैविक
संसाधनो को संरक्षण प्रदान करना है। पारिस्थितिक संतुलन तथा मानव जीवन की
आवश्यकताओं के निर्वाह हेतु जैव विविधता का संरक्षण अनिवार्य है।
जैव विविधता संरक्षण के प्रकार
(1) स्वस्थाने संरक्षण
(2) बाहा स्थाने संरक्षण
स्वस्थाने संरक्षण - इस प्रकार के संरक्षण में पौधो तथा जीव जंतुओं को उनके
प्राकृतिक आवास तथा स्थान में संरक्षित किया जाता है। तथा वन्य जीव को उसके
प्राकृतिक परितंत्र में संरक्षण उपलब्ध कराया जाता है।
स्वस्थाने संरक्षण-
§ राष्ट्रीय उद्यान
§ वन्यजीव अभ्यारण
§ जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र
§ पवित्र उपवन
जैव मंडल आरक्षित क्षेत्र - शब्द का प्रयोग एडवर्ड सूएस ने किया है। 1971 के यूनेस्को के मनुष्य तथा जीवमंडल कार्यक्रम में जीवमंडल
आरक्षण की संकल्पना का उदभव हुआ। तथा प्रथम जीवमंडल आरक्षित क्षेत्र की संकल्पना 1979 में हुई। इसका उद्देश्य जैव विविधता तथा पारिस्थितकीय तंत्र
को दीर्घकालिक संरक्षण प्रदान करना था।
भारत में 18 जैव मंडल आरक्षित क्षेत्र है जिसमें 12 यूनेस्कों में शामिल है।
जैव मंडल आरक्षित क्षेत्र की संकल्पना
(1) कोर क्षेत्र - यह जैवमंडल का सबसे महत्वपूर्ण सा्रेत है। यह कानूनी रूप से
संरक्षित तथा मानव गतिविहीन क्षेत्र है। कोर क्षेत्र का आकार तथा विस्तार
स्थलाकृति तथा संरक्षण के उद्देश्यों पर निर्भर करता है।
(2) बफर क्षेत्र - यह बाहय व कोर क्षेत्र के मध्य का भाग है। इस मध्यवर्ती
क्षेत्र में वही कार्य किया जाता है-
शोध
कार्य
पर्यावरणीय
शिक्षा व प्रशिक्षण
पर्यटन तथा अमोद-प्रमोद कार्य हेतु
(3) संक्रामण क्षेत्र - बफर मंडल के चारो ओर का क्षेत्र संक्रमण क्षेत्र कहलाता है।
इसमें स्थानीय लोगों तथा प्रबंधन के बीच सहयोग की भावना की जाती है।
इसमें मानवीय गतिविधियां की जाती है। जैसे - फसल ऊगाना, वानिकी तथा मनोरंजन आदि।
राष्ट्रीय उद्यान - राष्ट्रीय उद्यान वह क्षेत्र है जहां वन्यजीव की उन्नति के
लिए कडाई के साथ संरक्षित किया जाता है। यह मानवीय गतिविधियां - पशुचराई, कृषि कार्य तथा शिकार पूर्णतः प्रतिबंधित है। राष्ट्रीय
उद्यान केन्द्र सरकार द्वारा संचालित होते है - वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972
वन्य जीव अभ्यारण - वन्य जीव अभ्यारण का निर्माण वन्य प्राणियों को संरक्षित
तथा प्रजातियों को सुरक्षित करने के लिए किया जाता है। जिसमें कुछ प्रजति तथा कुछ
विशिष्ट प्रजाति को संरक्षित किया जाता है।
राष्ट्रीय उद्यान:-
§ सरकार द्वारा पूर्णतः नियंत्रित होते है।
§ मानवीय गतिविधियों पर पूर्णत रोक।
§ यह पर्यटन की अनुमति होती है।
§ सीमाओं का निर्धारण प्रशासनिक व विधिक प्रक्रियाओं के
द्वारा किया जाता है।
§ इसमें केन्द्र सरकार का पूर्णतः नियंत्रण होता है।
अभ्यारण:-
§ पूर्णतः नियंत्रण नही होता निजी कार्य कर सकते है।
§ वाणिज्यिक गतिविधियों की अनुमति।
§ अनुमति होती है।
§ सीमाओ का निर्धारण स्पष्ट नही होता है।
§ राज्य सरकार
जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र
§ सम्पूर्ण नियंत्रण होता है।
§ कोर क्षेत्र में पूर्णत निषेद्य बफर क्षेत्र में पायी जाती
है।
§ यह पर्यटन पर प्रतिबंध है।
§ सीमाओं का निर्धारण प्रशासनिक व विधिक प्रक्रियाओं।
§ केन्द्र सरकार
(4) पवित्र उपवन - ऐसे विशिष्ट क्षेत्र व पादप समूह जो लोगों की आस्था व
प्राकृतिक लगाव के कारण संरक्षित किये जाते है। पवित्र उपवन कहलाते है।
मुख्यतः
दो प्रकार का होता है।
(a) परम्परागत पवित्र उपवन
(b) मंदिर उपवन।
बाहा स्थान संरक्षण - इसके अंतर्गत संकटापन्न पादप व जंतुओं को उनके प्राकृतिक
आवास से अलग किसी विशेष स्थान पर संरक्षित किया जाता है। इसके अंतर्गत वानस्पति
उद्यान, चिड़ियाघर तथा जीन बंक तथा बीज बैंक को शामिल किया जाता है।
(1) बीज बैंक - बीज बैंक का उद्देश्य प्राकृतिक आपदाओं तथा अन्य
अप्रत्याशित स्थितियों जैसे-सूखा, बाढ़ की स्थिति के चलते बीज की आवश्यकता को पूरा करना है।
बीज बैकों में विशिष्ट किस्मों के प्रमाणिक और आधारित बीजों को रखा जाता है।
इसमें
बीजों को रासायनिक लेप तथा नियंत्रित तापीय विधि द्वारा संरक्षित किया जाता है।
(2) जीन बैंक - यह एक प्रकार का जीव कोष है। जहां आनुवांशिक पदार्थो को
सुरक्षित रखा जाता है। पौधो में, पौधों की कलम को हिमताप पर रखा जाता है। यह उसके बीज को
संग्रहण करके रखा जाता है। प्राणियेां में उनके शुक्राणु तथा अण्डु को प्रशीतन
विधि द्वारा प्रजातियों के अंडे तथा वीर्य को जैवकीय प्रशीतक में रखा गया है।
जीन
बैंको में पौधों को आनुवांशिक पदार्थ को द्रव नाइट्रोजन में 177°C पर रखा गया है।
राष्ट्रीय
पादप आनुवांशिक ब्यूरो - नयी दिल्ली
राष्ट्रीय पशु अनुसंधान संसाधन, करनाल।
(3) चिड़ियाघर - इस विधि में पक्षियों तथा जंतुओं की दुर्लभ तथा संकटग्रस्त
जातियों को उनके प्राकृतिक आवास से दूर एक कृत्रिम आवास में रखा जाता है। यह
जंतुओं के संरक्षण के साथ मनोरंजन को भी सुनिश्चित करते है। इसकी देख-रेख का
दायित्व केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण पर होता है। इसकी स्थापना भारतीय वन जीव
संरक्षण 1972 के तहत की गयी।
(4) वनस्पति उद्यान - यह एक कृत्रिम उद्यान है। इसमें स्थानिक तथा विदेशी पौद्यो की संकटग्रस्त तथा विशिष्ट ऐसी प्रजातियों महत्वपूर्ण होते है। इसमें पादपो की औषधीय व अनुसंधान हेतु प्रजातियों को रखा जाता है।
(5) आण्विक स्तर पर संरक्षण - आण्विक स्तर पर जर्मप्लाज्म संरक्षण अब संभव है। इसमें
क्लोन डीएनए तथा डीएनए युक्त पदार्थ अपनी मूल अवस्था में आनुवांशिक संरक्षण के लिए
उपयोग किया जा सकते है।
भारत में जैव विविधता संरक्षण प्रबंधन और रणनीतियां-
(1) जैव विविधता संरक्षण हेतु किए गए प्रयास - पृथ्वी पर जैव विविधता का संरक्षण प्रत्येक मानव का
कत्र्तव्य है। क्योंकि जैव विविधता पर खतरा होने से मानव जाति पर खतरा उत्पन्न हो
सकता है।
(2) जैव विविधता अभिसमय - यह वर्ष 1992 में रियो-डी-जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में शामिल
है । यह जैव विविधता से संबंधित प्रथम सम्मेलन था।
नागोया
प्रोटोकाल - इस समझौते का लक्ष्य आनुवाशिक संसाधनो से उत्पन्न निष्पक्ष एवं समान
वितरण सुनिश्चित करना है। यह वर्ष 2010 में हुआ। जापान में जिसमें 20 लक्ष्य तय किए गए।
(3) कार्टाजेना प्रोटोकाल - यह 2002 में हुआ है। जैव विविधता के संरक्षण संवर्धन पर बल दिया
गया।
(4) IUCN : International
Union for conservation of Nature
स्थापना 1948 मुख्यालय - जेनेवा (ग्लैड) में तथा 1964 से Red Data Book जारी किया गया।
जिसमें
पेड-पौधों तथा जंतुओं की ऐसी प्रजाति को रखा जाता है जो विभिन्न रूप से वर्गीकृत
है।
(5) वर्ल्ड वाइड फंड फार नेचर - 1961 स्वीजरलैंड के ग्लैंड में मुख्यालय।
(6) पृथ्वी सम्मेलनः- 1992 के ब्राजील डे रियो-डी-जेनेरियो सम्मेलन का मुख्य
उद्देश्य -पर्यावरण तथा संधारणीय विकास है।
इसमें
एंजेड़ -21 जारी किया गया ।
पर्यावरण
तथा विकास दर रियो घोषणापत्र।
(7) कन्वेन्शन ऑन बायोलोजिकल डाइवर्सिटीः- 1993 से प्रभावी हुआ।
(8) Traffic-टैफ्रिक [वाइल्ड लाइफ ट्रेड मॉनिटरिंग नेटवर्क]- स्थापना 1976 यह एक गैर सरकारी वैश्विक नेटवर्क।
(9) प्रोजेक्ट टाइगरः- बाघ परियोजना का प्रारम्भ 1972-1973 में किया जिम कार्बेट
राष्ट्रीय उद्यान से प्रारम्भ 1973
देश
में 52 बाघ आरक्षित है। 2018 में म0प्र0 में 526 बाघ है।
(10) राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरणः- पर्यावरण वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन । इसके
अध्यक्ष पर्यावरण तथा वन मंत्री है। 2005 में गठन किय़ा गया।
(11) प्रोजेक्ट एलीफेंटः- हाथी परियोजना -1992
16
राज्यों में 82 एलीफेंट रिजर्व है। प्रथम हाथी प्रोजेक्ट -सिंह भूमि एलीफेंट
रिजर्व झारखण्ड़
(12) गैड़ां परियोजनाः- स्थापना 1987
काजीरंगा
(असम) ,
मानस (असम), जलदापारा (पश्चिम बंगाल)
(13) इंगुल परियोजनाः- 1970 में प्रारम्भ।
कश्मीर
स्थित दाचीग्राम राष्ट्रीय उद्यान।
(14) एशियाई शेर/ गिर शेर परियोजनाः- 1973 में गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान में हुआ।
एशियाई
शेरो को म0प्र0 के कुनो-पालपुर राष्ट्रीय उद्यान मे भेजा।
(15) लाल पीड़ा परियोजनाः- यह भारत के पूर्वी हिमालय में पाया जाता है 1996 से प्रारंभ
की।
(16) थामिन परियोजनाः- मणिपुर की लोकटक झील के दक्षिण-पूर्वी भाग में थामिन मृग
पाया जाता है।
जैव विविधता अधिनियम 2002 - उद्देश्य जैविक संसाधनों का संरक्षण करना तथा उनका धारणीय
विकास करना।
(18)
भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण और भारतीय प्राणी सर्वेक्षण संस्थानः-
पादपो का संरक्षण भारतीय वनस्पति सर्वैक्षण-1890 तथा भारतीय प्राणी सर्वैक्षण संस्था-1916 मुख्यालय
-कोलकाता।
(19) बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटीः- स्थापना 1883 में। 06 सदस्यीय निकाय है यह हॉर्निबल तथा
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका जनरल ऑफ नेचुरल हिस्ट्री का प्रकाशन।
(20) भारतीय पशु कल्याण बोर्डः- 1962 में गठित किया गया मुख्यालय -चेन्नई।
आर्द भूमिः- रामसर कन्वेंशन के अनुसार- दलदल-पैकभूमि, पीटभूमि या जल, कृत्रिम या प्राकृतिक, स्थायी या अस्थायी, स्थिर जल या गतिमान जल तथा ताजा, खारा व लवणयुक्त जल क्षेत्र को आर्द भूमि कहा जाता है। इसे
सागरीय क्षेत्र की गहराई 06 मीटर से ज्यादा नही होनी चाहिए।
महत्वः-
(i) ये बाढ़ की घटनाओ मे कमी लाते है। तटीय इलाको की रक्षा करते
है। साथ ही प्रदूषकों को अवशोषित कर पानी की गुणवत्ता में वृद्धि
(ii) मानव विकास तथा पृथ्वी पर जीवन हेतू महत्वपूर्ण है। क्योकि
विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आर्द भूमि पर निर्भर है।
(iii) भूमि आधिरित कार्बन का 30% वीटलैण्ड में संग्राहित है।
(iv) ये परिवहन, पर्यटन
तथा सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण है।
(v) कई आर्दभूमि प्राकृतिक सुंदरता के क्षेत्र है। आदिवासी लोग
महत्वपूर्ण।
(vi) ये भोज्य पदार्थ तथा कच्चे माल हेतु महत्वपूर्ण है।
कमी के कारणः-
1. कृषि,वनिकी
तथा मच्छर नियंत्रण के लिए जल निकासी
2. ठोस अपशिष्ट निपटान
3. बाद नियंत्रण हेतु बांधो व डाइक व समुद्री दीवारों को
बनाना।
4. घरेलु अपशिष्टो में पेस्टीसाइड तथा हर बिसाइड़ तथा पोषक
तत्वों का मिलनाछ
5. कोयला व अन्य खनिज प्राप्ति हेतु आर्दभूमि का खनन।
6. भूमिगत जल का अतिदोहन
7. मत्स्य व पर्यटन गतिविधियाँ।
8. बाढ़ व सूखा।
9. मृदा अपरदन तथा जलवायु परिवर्तन।
मान्ट्रैक्स रिकार्ड़ः यह रामसर सम्मेलन के तहत कार्य करता है। इसके अंतर्गत
पर्यावरणीय प्रदूषण तता मानवीय अतिक्रमण से क्षतिग्रस्त आर्दभूमि को शामिल किया
जाता है। मान्ट्रैक्स रिकार्ड में सम्मलित स्थलों को अंनुवंधित
पत्रकारों की सहमति से हटाया जा सकता है।
इसके अंतर्गतः-
1. केवल देव राष्ट्रीय (राजस्थान-1990)
2. लोकटक झील (मणिपुर)
3. चिल्का झील (ओडिशा) -2002 में इसे हटा दिया गया है।
वैटलैण्ड इंटरनेशनलः- आर्द भूमि के संरक्षण तता पुर्नस्थापना हेतू इसकी स्थापना
की जा रही है।
1996
में इसका मुख्यालय -नीदरलैण्ड।
स्थापना -1991
प्रवाल
भितिः- प्रवाल एक जीवित प्राणी है। जो कठोर चूने का आवरण बनता है। तथा जूजजिली
नामक शैवाल के साथ मिलकर सहोपकारिता में रहता है। इन्हे महासागरीय वर्षा वन कहा
जाता है।
ये
मुख्य रूप से उष्ण कटिबंधिय महासगरों में पाये जाते है। जो बहुत ही संवेदनशील जीव
होता है। इनकी मृत्यु के पश्चात दूसरा प्रवाल इनकी खोल के ऊपर अपनी खोल बनाने लगता
है इस कृमिक क्रिया को प्रवाल भिति कहा जाता है।
प्रवाल हेतु दशाएं:-
1. इसका विकास ऐसे उष्ण महासागरों में होता है। जहाँ तापमान 20°c से 21°c के
बीच होता है।
2. प्रवाल विकास हेतू 60-70 मी0 गहराई अनिवार्य जहाँ सूर्य की
प्रकाश तथा पर्याप्त
ऑक्सीजन।
3. प्रवालों के विकास हेतू औसत सागरीय लवणता – 27 % से 30%
4. सागरीय तंरग एवं धाराएं प्रवालों हेतू लाभदायक होती है।
क्योकि ये प्रवालों के लिए भोजन उपलब्ध कराती है। इसी कारण बंद सागरो में कम
प्रवाल पाये जाते है।
प्रवाल भिति के प्रकारः-
1. तटीय प्रवाल भितिः- ये महाद्वीपों तथा द्वीपो के किनारे अतः
सागरीय चबूतरों के ऊपर निर्मित होने वाली प्रवाल भित्तियाँ कहलाती है।
तटीय
प्रवालो की संरचना अस्थिर होती है। तटीय प्रवाल स्थलीय भाग से सटी होती है। परन्तु
इनके मध्य अंतराल के कारण छोटी लैगूनो का निर्माण का होता है जिसे बोट चैनल कहा
जाता है।
उदा0
- मन्नार की खाड़ी, पाक की
खाड़ी,
कच्छ की खाड़ी
2. अवरोधक प्रवाल भित्तिः- इनका निर्माण तट से दूर तथा
समानान्तर होता है ये सभी प्रकार की प्रवाल भित्तियों से लम्बी विस्तृत, चौड़ी व ऊँची होती है। अलग-अलग स्थानों से कटी फटी होती तथा
इनका संबंध सागरों से हुआ है।
उदा0-
आस्ट्रेलिया की ग्रेट बेरियर रीफ
3. एटालया या वलयाकार प्रवाल भित्तिः- द्वीपो के धाटो ओर या
जलमग्न पठारों के ऊपर वलयाकार या अंडाकार रूप से पायी जानी वाली संरचना अथवा घोड़े
के नाल या मुद्रिका के आकार वाली प्रवाल भित्ति दो एँटाल कहा जाता है।
एटाँल
के मध्य में लैगून पाये जाते है। तथा इन भित्तियों के ऊपर सतह पर ताड़ के वृक्ष भी
देखे जा सकते है।
प्रवाल
विरंजनः प्रवाल विरंजन का अर्थ है। प्रवाल पर निर्भर रंगीन शैवालों का पर्यावरणीय
घटकों के नकारात्मक प्रभाव से प्रवालों के ऊपर से हट जाना जिससे प्रवाल की सतह का
वास्तविक रंग श्वेत दिखायी देने लगता है। तथा भोजन आपूर्ति बाधित हो जाती है। अतः
प्रवाल मर जाते है। इसे ही प्रवाल विरंजन कहा जाता है।
यह
प्रकाश संश्लेषण तीव्र होने पर प्रवाल ऊतको पर ऑक्सीजन स्तर बढ़ जाने के कारण
प्रारंभ होती है। ऑक्सीजन की मात्रा निंयत्रित करने हेतु प्रवाल जूजैलिजली को शरीर
से बाहर निकाल देते है। या यह अपने रंगीन क्लोरोफिल की मात्रा को कम कर देते है।
कारणः
वैश्विक तापमान, एलनीनो
कोरल
खनन,
प्लेटविवर्तनिकी घटनाये
बाढ़, भीषण चक्रवात, सागरीय तापमान में वृद्धि।
भारत
की जैव विविधताः-
भारत
जैव विविधता की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विश्व के मेगा डायवर्सिटी वाले
देशों में भारत भी शामिल है। जैव विविधता के संदर्भ में भारत का स्थान विश्व में
दसवा तथा एशिया में चौथा है। भारत में पादपों की 45,000 प्रजातियाँ पायी जाती है। IUCN के अनुसार भारत में जीवों की लगभग 91,000 प्रजातियाँ पायी जाती है।
भारत
को जैव विविधता के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया गया
है।
1. जैव विविधता संवेदी क्षेत्र- हाटस्पॉट
2. समुद्रीय जैव विविधता संबंधी क्षेत्र- हाटस्पॉट
3. जैव भौगोलिक क्षेत्र।
1. जैव विविधता संवेदी क्षेत्रः- हॉटस्पॉट शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ब्रिटिश पर्यावरणविद् नार्मन मायर्स ने किया था। विश्व में 36 हाटस्पॉट में 04 भारत में पाये जाते है।
a. हिमालयन क्षेत्रः इसका विस्तार भारतीय हिमालयी क्षेत्र
(पाकिस्तान ,तिब्बत, नेपाल व भूटान, चीन तथा म्यांमर) जैव विविधता की दृष्टि से अधिक संमृद्ध
है। यहाँ सिर्कास्तेरिया, ब्यूटोमेसिया, स्टेकीयूरेशिया पादप प्रजातियाँ पायी जाती है वही
चिग्मीहांग हिमालय ताहर, गंगा
डाल्फिन तथा गंगा डॉल्फिन तथा एक सींग वाला गैड़ां तथा नाम का राष्ट्रीय उद्यान
में नामका उड़न गिलहरी तथा मांऊट एवरेस्ट तथा k2 आदि।
b. इण्डों -वर्माः- यह क्षेत्र पूर्वी बांग्लादेश से मलेशिया
तक कई देश। यह हाटस्पाँट क्षेत्र मुख्यतः वनाच्छादित है। जहाँ कषि की कई
प्रजातियाँ -बंदर तथा लंगूर तथा गिब्बन पाये जाते है।
ब्हाइट
इर्यड नाइट हेराँन तथा ग्रे काउण्ड कोक्रिउस तथा ऑरेड़ नेक्ड़ पैरिज आदि
संकटग्रस्त प्रजातियाँ है। अदरक यहाँ की स्थानीय प्रजातियाँ।
c. सुण्ड़ा लैण्ड क्षेत्रः वर्ष 2013 मे UNO द्वारा हॉटस्पॉट क्षेत्र घोषित किया गया था। इसका विस्तार
भारत के ग्रेट निकोबार से लेकर नानकाउरी द्वीपसमूह तथा इण्डोनेशिया सिंगापुर तथा
मलेशिया है। यह समुद्री तथा स्थलीय जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
मैग्रोव तथा कोरलरीफ कछुआ तथा मगरमच्छ आदि।
d. पश्चिमी घाट तथा श्री लंका क्षेत्रः यह भारत का सर्वाधिक
जैव विविधता वाला तथा समृद्ध क्षेत्र है। यह आर्दपर्णपाती वर्षा वन क्षेत्र है। जो
लगभग 1600 किमी तक विस्तृत है। यह लगभग 6000 प्रजातियाँ पायी जाती है। यहाँ एशियाई
हाथी,
नीलगिरी ताहर तथा भारतीय बाघ तथा शेर जैसी पूंछ वाला बंदर ।
जबकि लॉयन टेल्क मकाक यह की संकटग्रस्त स्थानिय जीव है।
2. समुद्री जैव विविधिताः-हॉटस्पाट -द्वीप सहित भारत की कुल
तटीय सीमा- 7516.6 किमी है। इस प्रकार भारत का एक विस्तृत लम्बा क्षेत्र समुद्र से
घिरा हुआ है। इसलिए समुद्री जैव विविधता तथा समुद्री जैव विविधता वाले क्षेत्रों
मे म्रगोव, एश्चुअरी तथा प्रवाल
भित्तियाँ पायी जाती है। यह पर्यावरणीय जैव विकास की अनुकूलन स्थिति के कारण
समृद्ध जैव विविधता -मोलष्का/ घोघा/प्रवाल आदि भारत के प्रमुख हॉटस्पाट -लक्षद्वीप
तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह है।
3. भारत के जैव भौगोलिक क्षेत्रः जैव भौगोलिक क्षेत्र से आशय
ऐसे क्षेत्रों से है। जहाँ जन्तुओं तथा पादपों की लक्षण तथा वितरण विश्व के अन्य
देशो की तुलना में विशिष्ट होते है। परिवर्तनशील भौगोलिक क्षेत्र, अंक्षाश प्रवणता में बदलाव तथा आवासीय पर्यावरणीय विभिन्नता
इत्यादि के कारण प्रजातियाँ और उनके परितंत्र में भिन्नताए पायी जाती है।
जैव
विविधता की दृष्टि से भारत में 10 जैव भौगोलिक क्षेत्र है।
1. ट्रांस हिमालय क्षेत्रः यह जैव भौगोलिक क्षेत्र- कारकोरम
तथा लद्दाख तथा तिब्बत का पठार तथा सिक्किम आते है। यह अत्यधिक ऊँचाई वाले शुष्क
पर्वतीय क्षेत्र है। यह केवल अल्पाइच प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। यह जंगली
भेड़ तथा बकरी तथा जंगली तेदुँआ व काली गर्दन वाले सारस पाये जाते है।
2. हिमालयः सुदुर उत्तर भारत में स्थित हिमालय कुल भौगोलिक
क्षेत्र का 7.2% यह अत्यधिक उच्च चोटियाँ पायी जाती है।
पूर्वी हिमालय अत्यधिक सघन तथा पश्चिमी हिमालय विरल है। यहाँ पर उष्णकटिबंधीय वनो से लेकर टुड्रा वनस्पति पायी जाती है। यह वृक्ष तथा स्तनधारी जीव-जन्तु पाये जाते है। यह हिम तेंदुआ व भालू पाये जाते है।
3. भारतीय मरूस्थलः- इसमें थार का मरूस्थल तथा कच्छ का रण आता
है इस क्षेत्र में सर्वाधिक कीटो की प्रजातियाँ पायी जाती है। इसके आलावा पक्षियों
की कई प्रजातियाँ पायी जाती है। विलुप्त प्रजातियाँ: भेड़िया तथा ग्रेट इंण्डियन बस्टर्ड़
तथा ब्लेक बंग प्रमुखतः विलुप्त है।
4. अर्द शुष्क क्षेत्रः- इसके अंतर्गत पंजाब का मैदान तथा गुजरात का मैदान क्षेत्र है। यह क्षेत्र एशियाई शेरों का क्षेत्र है। यह क्षेत्र घास तथा यूकोर्विया झाड़ी से घिरा हुआ है।
5. पश्चिमी घाट- यह भौगोलिक क्षेत्र के अंतर्गत भारत में
सदाबहार वनों का प्रमुख क्षेत्र है। यह अत्यधिक जैव विविधता से युक्त है। इसे
हॉटस्पाट से सूचीबद्ध किया गया।
इसमें 15000 प्रजातियाँ पादपो तथा 4000 स्थानीय। शेर पूंछ बंदर तथा भूरी गिलहरी, मालाबार ग्रेट हार्बिबिल। तथा यह संकटग्रस्त प्रजातियाँ -त्रावणकोर कछुआ तथा क्रेन कछुआँ।
6. दक्कन का प्रायद्वीपीय पठारः- यह अर्धशुष्क प्रदेश पश्चिमी घाट के वृष्टि छाया क्षेत्र मॆं पड़ता है। यहा पर पर्णपाती, कोणीय वन तथा छोटे वाले घास मैदान है। यह काली व लाल मृदा पायी जाती है। तथा यह सांभर ,चीतल, नीलगाय,इत्यादि।
7. गंगा का मैदानी क्षेत्रः यह दक्षिण हिमालय से लेकर कर्क रेखा तक फैला हुआ है। यह सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र इस मैदान का निर्माण गंगा नदी अपवाह क्षेत्र द्वारा हुआ है। यह सर्वाधिक मात्रा में मैंग्रोव प्रजातियाँ पायी जायेगी। यह मैदान राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा बिहार तथा असम/ यह उष्ण कटिबंधीय आर्द पर्णपाती वन पायी जाती है।
8. पूर्वोत्तर क्षेत्रः इस जैव भौगोलिक क्षेत्र के अंतर्गत पूर्वों तथा ब्रह्मपुत्र नदी घाटी। भारत का उत्तर पूर्वी क्षेत्र उष्णकटिबंधीय वनस्पति से घिरा हुआ है।
9. तटीय क्षेत्रः यह भारत के पूर्व तथा पश्चिमी भागो मॆं फैली है। यह गुजरात के कच्छ से लेकर पश्चिम बंगाल। यह प्रवाल द्वीप तथा मैंग्रोव वन है। यह समुद्री कछुआँ व मछलियाँ तथा सुन्दरवन में रॉयल बंगाल पाये जाते है।
10. भारत का द्वीपीय क्षेत्रः उपमहाद्वीपों का क्षेत्र 572
द्वीपो का समृद्ध है। जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यहाँ मैंग्रोव
वनस्पति पायी जाती है। यहाँ पर डाल्फिन तथा घड़ियाल पाया जाता है।
अंडमान -निकोबार में प्रवालभित्ति 11000 वर्ग) किलोमी। यह लम्बे वृक्ष पाये जाते है। इनका उपयोग अवधी के रूप में करते है। उदा- बहेड़ा वृक्ष का उपयोग औषधी में किया जाता है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकीः- वन्यजीव संरक्षण
1. स्मार्ट कॉलर
2. रिमोट सेसिंग व ड्रोन
3. कैमरा टैप
4. जीव अनुक्रमणः इसेक माध्यम से सुमेष प्रजातियो को खतरनाक
कैंसर जैसी बीमारियों से बचाने का प्रयास करना।
5. वन्यजीव ध्वनि की मानिटरिंगः- पक्षियों की ध्वनि को सुना
जाय।
6. सोसल मीडियाः
पर्यावरण संरक्षण एंजेसीः- USA की पर्यावरणीय संरक्षण संबंधी संजीय एंजेसी 02 दिंसं 1970
को।
पर्यावरणीय आवधारणाः
आवधारणा →
1. नियतिवादी आवधारणाः- रेटजिल मानव जीवन पूर्णत प्रवृति पर
निर्भर है।
2. संभववादी धारणा- विडाल डी लाख्लांश मानव प्रकृति पर विजय
प्राप्त कर चुका है।
3. नवनिर्यात वादी आवधारणाः गिकिल टेलर OHK स्पेर मानव विकास हेतू सतत् विकासी।
4. सांस्कृतिक निश्चयवाद की आवधारणों:- प्रो0 कार्ल – मानव की
सक्रियता पर बल दिया गया ।
5. पारिस्थितिकीय आवधारणाः इससे पर्यावरण तथा मानव के मध्य
शांतिपूर्ण संबंधों पर बल।
ऐसे सुनियोजित स्थान जहाँ भवन निर्माण, कारखाने आदि बांध के माध्यम से पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन किया जाता है। हरित पटिका कहलाती है।
राष्ट्रीय जल नीतिः 2012
ईको
मार्क वर्ष 1991 में पर्यावरण वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय।
विश्नोई
आंदोलन -1780- खेखडी गाँव -अमृता देवी
अनुभूति कार्यक्रम -2021
पर्यावरण प्रदर्शन सूंचकांक 2022 – 2002 मे वर्ल्ड इकोनामिक फोरम घाटी भारत -168वाँ
भारत में व्याप्त पर्यावरणीय संगठनः
1. बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी- स्थापना 1883 मुंबई
2. भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण -1890 कोलकाता
3. वर्ल्ड वाइड फंड़ फार नेचर इंण्डिया-1969
4. भारतीय वन्य जीव संस्थान -1982
5. भारतीय प्राणी सर्वेक्षणः 1916
पर्यावरण संरक्षण हेतुः
संवैधानिक प्रावधानः
1. अनु0 21- स्वच्छ पर्यावरण तथा वातावरण में रहने तथा जीवन
जीने का अधिकार।
2. अनु- 48(A)-राज्य
का कर्तव्य है पर्यावरण का संरक्षण तता संवर्धन
3. अनु-51(A) – प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा तथा उसका संवर्धन व्यक्ति का
मौलिक कर्तव्य।
4. अनु- 25B-कानून
बनाने का अधिकार-पर्यावरण संरक्षण अधि 1986
5. अनु0 32 व अनु0 226- पर्यावरण संरक्षण हेतू रिट जारी करना।.
एन0
सी0 मेहता- पर्यावरण प्रदूषण मुक्त वातावरण-1987
नीतिगत उपायः-
1. राष्ट्रीय वननीति 1988
2. राष्ट्रीय पर्यावरण नीति-2006
3. राष्ट्रीय जल नीति- 2012
4. हरित राजमार्ग नीति -2015
5. राष्ट्रीय अपतटीय पवन ऊर्जा नीति- 2015
नियामक ढ़ांचाः-
1. पर्यावरण वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
2. राष्ट्रीय हरित न्यायधिकरणः
3. जूलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डियाः
4. जैव विविधता बोर्ड
5. राष्ट्रीय बाघ संरक्षण / प्राधिकरण
6. केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड़- 1974 (तन्मय कुमार)
अध्यक्
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