आधुनिक भारत का इतिहास प्रश्न उत्तर के साथ (स्वतंत्रता के पूर्व)
2022
प्रश्नः अधिकांश भारतीय
सिपाहियों वाली ईस्ट इंडिया की सेना क्यों तत्कालीन भारतीय शासकों की संख्याबल में
अधिक और बेहतर सुसज्जित सेना से लगातार जीतती रही? कारण बताएँ।
(150 शब्द, 10 अंक)
Why did the armies of the British East India
Company, mostly comprising of Indian Soldiers, win consistently against the
more numerous and better equipped armies of the then Indian rulers? Give
reasons.
उत्तर: ब्रिटिश ईस्ट
इंडिया कंपनी की सेना में भारतीयों की भर्ती की गई थी क्योंकि वे भारत की
स्थितियों से परिचित थे। भारतीय कम पारिश्रमिक लेने के लिये भी तैयार थे। नतीजतन, ईस्ट इंडिया कंपनी का समग्र व्यय अनुबंधित
ब्रिटिश सेना के जवानों की तुलना में सस्ता था। ब्रिटेन की भारत से अत्यधिक दूरी
के कारण ब्रिटिश अपने लोगों को भारत में स्थानांतरित करने के इच्छुक नहीं थे।
अंग्रेज़ों ने भारत पर अपने स्वयं के अधिकार को मज़बूत करने के लिये युद्ध और
प्रशासनिक प्रक्रियाओं के हर उपलब्ध साधन को लागू किया था।
उत्कृष्ट सैन्य
और आयुध रणनीति
·
अंग्रेजों के पास तोप और असॉल्ट राइफलें थीं जो भारतीय
हथियारों की तुलना में रेंज और शूटिंग की गति के मामले में अधिक उन्नत थीं।
·
कई भारतीय शासक यूरोपीय हथियार लाए, लेकिन वे ब्रिटिश अधिकारियों की तरह युद्ध
रणनीति बनाने में असमर्थ थे।
सशस्त्र विनियमन, समर्पण और लगातार
पारिश्रमिक
·
ब्रिटिश एक नियमित आय और एक कठोर आचार संहिता के लिये
अत्यधिक प्रतिबद्ध थे जो कमांडरों और सैनिकों की वफादारी की गारंटी देता था।
·
भारत के शासकों के पास नियमित वेतन भुगतान करने के लिये
आवश्यक संसाधनों की कमी थी।
·
कुछ राजा अनियंत्रित और विश्वासघाती भाड़े के सैनिकों पर
अपनी निजी रक्षा के लिये निर्भर थे।
प्रभावी नेतृत्व
·
रॉबर्ट क्लाइव, वॉरेन हेस्टिंग्स, एलिफिंस्टन, मुनरो और अन्य लोगों ने असाधारण नेतृत्व का प्रदर्शन किया।
·
अंग्रेजों को सर आयर कूट, लॉर्ड लेक,
आर्थर
वेलेजली और अन्य दूसरी पंक्ति के कमांडरों से भी लाभ हुआ, जो अपने देश के हितों और सम्मान के लिये खड़े
थे।
·
जबकि भारतीय पक्ष में हैदर अली, टीपू सुल्तान, माधवराव सिंधिया और जसवंत राव होल्कर जैसे उत्कृष्ट कमांडर
थे, जिनमें नेतृत्व क्षमता की
कमी थी।
एक ठोस वित्तीय
नींव
·
ब्रिटिश व्यापार ने इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को मजबूत किय
जिसके कारण धन और अन्य संसाधनों के रूप में उन्हें सरकारी सहायता मिली।
राष्ट्रीय गौरव
और एकीकरण का अभाव
·
भारतीय शासकों में एक सामंजस्यपूर्ण राजनीतिक राष्ट्रवाद
अभाव था, जिसका उपयोग अंग्रेजों ने
उनके बीच गृहयुद्ध भड़काने के लिये कुशलतापूर्वक किया।
·
ईस्ट इंडिया कंपनी के पास एक निजी सेना थी। इसका उपयोग कर
लगाने, आधिकारिक तौर पर अनुमोदित
लूटपाट करने, भारतीय सरकारों
और रियासतों को अधीन करने आदि के लिये किया गया।
प्रश्न: औपनिवेशिक भारत
की अठारहवीं शताब्दी के मध्य से क्यों अकाल पड़ने में अचानक वृद्धि देखने को मिलती
है? कारण बताएँ।
(150 शब्द,
10 अंक)
Why was there a sudden spurt in famines in
colonial India since the mid-eighteenth century? Give reasons.
उत्तर: अकाल को 'नियमित खाद्य आपूर्ति की कमी के परिणामस्वरूप
एक क्षेत्र की आबादी द्वारा अनुभव की जाने वाली तीव्र भूख की स्थिति ' के रूप में परिभाषित किया गया है।
·
बंगाल में वर्ष 1769-70 का अकाल दो
वर्षों की अनियमित वर्षा होने से पड़ा,
लेकिन
चेचक की महामारी से इसकी स्थिति और भी बदतर हो गई।
·
पश्चिमी भारत में वर्ष 1812-13 का अकाल, जिसने विशेष रूप
से काठियावाड़ क्षेत्र को प्रभावित किया,
टिड्डियों
और चूहों के हमलों के कारण कई वर्षों के फसल नुकसान का परिणाम था।
·
वर्ष 1832-33 के गुंटूर अकाल
ने फसल के नष्ट होने के साथ-साथ किसानों पर कराधान के अत्यधिक और अनिश्चित स्तर
में भी वृद्धि की।
·
ओडिशा में वर्ष 1865-71
के
अकाल ने किसानों को प्रभावित किया,
लेकिन
स्थानीय प्रशासन द्वारा भोजन के आयात से लगातार इनकार करने से यह स्थिति और भी
बदतर हो गई।
सूखा
वर्ष 1870-1920 की अवधि में बंबई में
अकाल सूखे के कारण पानी की अत्यधिक कमी से फसलों का नष्ट होना जारी रहा। अकाल का निकटतम
कारण बिना किसी अपवाद के खाद्य कीमतों में तेजी से वृद्धि था, जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक मजदूरी को कम कर
दिया गया था जो मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर समूहों के बीच भुखमरी, कुपोषण और महामारी का कारण बना।
ग्रामीण
ऋणग्रस्तता
·
ऋण हमेशा भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख घटक
रहा है। ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए अत्यधिक लगान और अवैध कराधान के कारण
किसानों पर भारी कर्ज, जो अकाल की
शुरुआत में परिणत होने वाली गंभीर सूखे जैसी परिस्थितियों की शुरुआत से बढ़ गया
था।
ब्रिटिश नीति
·
औपनिवेशिक शासन के दौरान विनाशकारी अकालों का मुख्य कारण
भारतीयों पर शोषण और दमन नीति थी।
·
अंग्रेजों द्वारा इंग्लैंड को कृषि उपज का बड़े पैमाने पर
निर्यात के कारण भारत में खाद्य आपूर्ति की कमी हो गई जो अंततः गंभीर अकाल में
परिणत हुई।
·
कार्नवालिस ने 1793 में स्थायी
बंदोबस्त की शुरुआत की। इस रणनीति से किसानों को भूमि के स्वामित्व से बेदखल कर
दिया गया, जिसने भारत के कृषि
इतिहास में पहली बार ज़मींदारों और तालुकेदारों को वास्तविक स्वामी बनाया।
·
वर्ष 1943 का अकाल द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान सैन्य उद्देश्यों के लिये खाद्यान्न की बड़ी खरीद के कारण हुआ
था।
औपनिवेशिक
काल के दौरान हुए अकालों का अर्थव्यवस्था और यहाँ तक कि संस्कृति पर भी जबरदस्त
प्रभाव पड़ा। अकालों ने निस्संदेह जनसंख्या वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव डाला और
आर्थिक विकास को धीमा कर दिया। यह संस्कृति की प्रगति में भी एक बड़ी बाधा है।
साम्राज्यवादी नीति ने आबादी को लंबे समय तक पीड़ा, गरीबी, शोषण और उत्पीड़न
के अधीन किया।
2021
प्रश्न: यंग बंगाल एवं
ब्रह्म समाज के विशेष संदर्भ में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों के उत्थान तथा
विकास को रेखांकित कीजिये |
(150 शब्द,
10
अंक)
Trace the rise and growth of socio-religious
reform movements with special reference to Young Bengal and Brahmo Samaj.
उत्तर: 19वीं सदी में भारत में सामाजिक-धार्मिक सुधार
आंदोलनों का उत्थान भारतीय शिक्षित वर्ग का यूरोपीय प्रबोधन से प्रभावित होने के
कारण हुआ। भारत का शिक्षित वर्ग यूरोपीय मानवतावाद तथा विवेक के सिद्धांत से
अभिभूत था और चाहता था कि भारतीय भी यूरोपीय सिद्धांतों से परिचित होकर अपना
उत्थान करें।
दूसरी तरफ कुछ
शिक्षित भारतीय भारत की विदेशी शक्ति द्वारा पराजय के ज़िम्मेदार कारकों की खोज में
संलग्न हुए। इस प्रकार पाश्चात्य प्रभाव और उसकी प्रतिक्रिया में सामाजिक-धार्मिक
आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन की पहल राजा राममोहन राय और हेनरी विवियन डेरोजियो ने
अपनी संस्थाओं क्रमशः ब्रह्म समाज और यंग बंगाल के माध्यम से की।
राजा राममोहन राय
ने अनेक देवताओं में विश्वास के विरुद्ध एकेश्वरवाद के पक्ष में तर्क दिया।
पुरुषों पर औरतों की निर्भरता की निंदा करते हुए उनकी शिक्षा और स्वतंत्रता पर बल
दिया। तत्कालीन सती - प्रथा के विरुद्ध आंदोलन किया और 1829 ईस्वी में सती निषेध कानून बनवाया। आधुनिक
शिक्षा के प्रसार के लिये कॉलेज स्थापित किये। जाति प्रथा की कट्टरता का विरोध
किया। ज़मींदारों के शोषण का विरोध करते हुए किसानों द्वारा दिये जाने वाले लगान को
सुनिश्चित करने का सुझाव दिया। अंतर्राष्ट्रीय क्रांतियों का समर्थन किया।
हेनरी विवियन
डेरोजियो ने यंग बंगाल आंदोलन के माध्यम से अपने छात्रों को विवेकपूर्ण और मुक्त
ढंग से सोचने सभी आधारों की प्रामाणिकता की जाँच करने, समानता और स्वतंत्रता से प्रेम करने तथा सत्य
की पूजा करने के लिये प्रेरित किया। यंग बंगाल के एक नेता लाल मोहन घोष के अनुसार 'वह जो तर्क नहीं करेगा धर्माध है, वह जो नहीं कर सकता बेवकूफ है और वह जो नहीं
करता गुलाम है। '
महाराष्ट्र में
प्रार्थना समाज और ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में सामाजिक-धार्मिक आंदोलन का प्रसार
हुआ। पंजाब में आर्य समाज के माध्यम से दयानंद सरस्वती ने ऋग्वैदिक समानता के
सिद्धांतों का प्रसार किया। उन्होंने जातिगत भेदभाव और स्त्री-पुरुष असमानता का
विरोध करते हुए सबको बराबरी का अधिकार दिया,
लेकिन
उनका आंदोलन पश्चगामी प्रवृत्ति का था,
जिसकी
परिणति सांप्रदायिक द्वेष में हुआ। बंगाल में रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य
विवेकानंद ने भी सामाजिक सुधार में रामकृष्ण मिशन के माध्यम से महती योगदान दिया।
केशवचंद्र सेन के प्रयासों से दक्षिण भारत में सामाजिक सुधार प्रारंभ हुए, जो आगे चलकर आत्म-सम्मान आंदोलन के माध्यम से
समाज के निचले वर्ग के उत्थान में बदल गए। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवाओं की
सामाजिक स्वीकृति और उनके पुनर्विवाह के लिये अनथक प्रयास किये।
इस प्रकार हम कह सकते हैं
कि पाश्चात्य विचारों के प्रभाव में और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारत में
सामाजिक-धार्मिक आंदोलन का उत्थान और विकास हुआ।
प्रश्न: नरमपंथियों की
भूमिका ने किस सीमा तक व्यापक स्वतंत्रता आंदोलन का आधार तैयार किया? टिप्पणी कीजिये।
(250 शब्द,
15
अंक)
To what extent did the role of the Moderates
prepare a base for the wider freedom movement? Comment.
उत्तर: कांग्रेस की
स्थापना के पश्चात् उसके आरंभिक नेताओं ने जो नीतियाँ राष्ट्रीय आंदोलन के लिये
अपनाईं, उनके कारण उन्हें नरमपंथी
कहा गया। नरमपंथी नेताओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनता को राजनीतिक अधिकारों के
प्रति जागरूक करना और ब्रिटिश शोषण के खिलाफ उन्हें संगठित और आंदोलित करना था।
इसके लिये
उन्होंने पहले के तीव्र और असतत प्रतिरोध के स्थान पर धीमे और सतत प्रतिरोध की
नीति अपनाई । सर्वप्रथम नरमपंथी नेताओं ने साम्राज्यवाद की अर्थशास्त्रीय आलोचना
की तथा भारत में औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था यानी कच्चा माल का निर्यात, तैयार माल का आयात तथा पूंजी निवेश का तीव्र
विरोध किया। उन्होंने भारत की निर्धनता को दूर करने के लिये आधुनिक उद्योगों का
तीव्र विकास करने की ब्रिटिश सरकार से मांग की।
भारत से इंग्लैंड
भेज दी जाने वाली दौलत पर रोक लगाने,
किसानों
पर कर का बोझ कम करने, बागान मज़दूरों
की कार्य-स्थितियों को बेहतर बनाने की मांग की। उन्होंने 'प्रतिनिधित्व नहीं तो कर नहीं' का नारा बुलंद कर विधायी परिषदों में
भारतीयों के निर्वाचन की मांग की। नरमपंथी नेताओं ने इसी क्रम में ब्रिटिश
साम्राज्य के भीतर 'स्वशासन' का दावा भी पेश किया।
उनकी एक अन्य
मांग थी प्रशासनिक सेवाओं के उच्चतर पदों का भारतीयकरण किया जाए। उन्होंने पड़ोसी
देशों के प्रति ब्रिटिश सरकार की आक्रामक नीति का विरोध किया। उन्होंने सरकार से
आग्रह किया कि वह कल्याणकारी गतिविधियों के रूप में शिक्षा और स्वास्थ्य पर
पर्याप्त खर्च करे।
इन सब मांगों के
लिये नरमपंथी नेताओं ने कानून के दायरे में रहकर संवैधानिक आंदोलन चलाया तथा
धीरे-धीरे व्यवस्थित ढंग से राजनीतिक प्रगति की। आरंभिक राष्ट्रवादियों ने भारतीय
जनता को शिक्षित करने के लिये पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, यथा दादाभाई ने 'रस्त गोफ्तार', सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने 'बंगाली', गोपाल कृष्ण
गोखले ने 'सुधारक' को प्रकाशित किया।
चूँकि नरमपंथी
नेता यह मानते थे कि जनता उग्र और जुझारू आंदोलन के लिये अभी तैयार नहीं है। अतः
वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कोई आंदोलन नहीं कर सके। वस्तुतः वे ब्रिटिश शासन के
समक्ष केवल याचना और मांग ही प्रस्तुत कर सकें।
इन अर्थों में
नरमपंथियों ने व्यापक स्वतंत्रता आंदोलन का आधार तैयार किया। उन्होंने एक व्यापक राष्ट्रीय
जागृति लाने तथा जनता में एक
ही
भारतीय राष्ट्र का सदस्य होने की भावना जगाने में सफलता प्राप्त की। इसके साथ उन्होंने
जनता को राजनीतिक कार्य में प्रशिक्षित किया। साम्राज्यवाद की उनकी आर्थिक आलोचना बाद के
राष्ट्रीय आंदोलन का महत्त्वपूर्ण
अस्त्र बन गई। उनके आंदोलन की महत्त्वपूर्ण कमी थी कि वे जनता को आंदोलन में शामिल नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने वह बुनियाद बनाई जिस पर राष्ट्रीय
आंदोलन और विकसित हुआ।
प्रश्नः असहयोग आंदोलन
एवं सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों को
स्पष्ट कीजिये।
(250 शब्द, 15 अंक)
Bring out the constructive programmes of
Mahatma Gandhi during Non-Cooperation Movement and Civil Disobedience Movement.
उत्तर: असहयोग
आंदोलन के दौरान एवं उसके पश्चात् तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी गांधी जी ने कुछ
सकारात्मक कार्यक्रमों की घोषणा की थी जिन्हें रचनात्मक कार्यक्रम कहा गया। चूँकि
कोई भी आंदोलन सतत नहीं चलाया जा सकता अथवा उसके प्रति लोगों का समर्थन अनवरत
हासिल नहीं किया जा सकता। अतः गांधी जी ने 'संघर्ष विराम
संघर्ष' की रणनीति अपनाई। जब
सक्रिय आंदोलन होता था, तब नकारात्मक
कार्यक्रम अर्थात् बिटिश सरकार और उनके संस्थानों का बहिष्कार किया जाता था। उनकी
नौकरियों, पदवियों का त्याग / कर न
देना/ स्कूल और न्यायालय का बहिष्कार/विदेशी वस्त्रों की होली जलाना आदि।
जब सक्रिय आंदोलन
नहीं होता था, यानी विराम काल
में रचनात्मक कार्यक्रमों के द्वारा लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़े रखा गया
तथा सामाजिक सुधारों को गति प्रदान करने के लिये निम्न कार्यक्रम आरंभ किये गए-
·
संपूर्ण देश में सैकड़ों खादी आश्रमों की स्थापना की गई, जहाँ लोगों ने महिलाओं, आदिवासियों के साथ मिलकर कताई-बुनाई का
प्रशिक्षण लिया, जिससे उनको कार्य
करने और स्वावलंबी बनने की प्रेरणा मिली।
·
अनेक राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना करके युवाओं को
राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा गया।
·
हिंदू-मुस्लिम एकता के लिये सतत प्रयास किया गया।
·
अस्पृश्यता के विरुद्ध कार्य किया गया। गांधी जी ने छूआछूत
को भारतीय समाज का सबसे बड़ा रोग बताया।
·
बाढ़ पीड़ितों को सहायता देने का कार्यक्रम चलाया गया।
यद्यपि
रचनात्मक कार्यक्रमों का लाभ शहरी निम्न मध्यम वर्ग एवं समृद्ध कृषकों को ही मिला।
भूमिहीन, दलित तथा मज़दूरों को
विशेष लाभ इन रचनात्मक कार्यक्रमों द्वारा नहीं पहुँचा। फिर भी रचनात्मक
कार्यक्रमों की महती उपलब्धि यह रही कि जनता को जन आंदोलनों के साथ जोड़े रखा जा
सका। धीरे-धीरे ही सही इन्हीं रचनात्मक कार्यक्रमों की बदौलत छूआछूत और
सांप्रदायिकता की समस्या से प्रभावी मुकाबला किया जा सका। खादी आश्रमों की स्थापना
से कुटीर उद्योगों की एक श्रृंखला को जन्म दिया गया जिससे जुड़कर अनेक भारतीय
स्वावलंबी बन सके तथा उनकी न्यूनतम आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की गई।
2020
प्रश्न: लॉर्ड कर्जन की
नीतियों एवं राष्ट्रीय आंदोलन पर उनके दूरगामी प्रभावों का मूल्यांकन कीजिये।
(150 शब्द,
10
अंक)
Evaluate the policies of Lord Curzon and
their long-term implications on the national movement.
उत्तरः भारत के वायसरॉय
और गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड कर्जन ने 1899 ई. से 1905 ई. तक अपनी सेवाएँ दीं। उनकी नीतियों से
प्रतीत होता है कि वे एक साम्राज्यवादी प्रशासक थे। विदेश नीति में रूसी खतरे को
रोकने के लिये लगातार अफगानिस्तान और ईरान में हस्तक्षेप करना तथा तिब्बत में यंग
हस्बैंड मिशन भेजकर उसे अपने अनुकूल बनाना उनकी आक्रामक नीति का उदाहरण है।
घरेलू नीति में
उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के उभार को जिस तरह रोकने का प्रयास किया उसने समूचे
राष्ट्रीय आंदोलन को एक दिशा दी। सबसे पहले 1899 ई. में कलकत्ता
नगर निगम में चुने गए सदस्यों की संख्या कम कर दी गई। इसके पश्चात् 1904 ई. में विश्वविद्यालय अधिनियम द्वारा सरकारी
हस्तक्षेप बढ़ा दिया गया और विद्यालयों की संबद्धता का प्रश्न सरकारी अधिकारियों
के हाथ में दे दिया गया। अभी राष्ट्रवादी इन नीतियों का समुचित विरोध कर पाते तभी 1905 ई. में बंगाल की बढ़ती राष्ट्रवादी ताकत को
समाप्त करने के लिये उसके विभाजन की घोषणा कर दी गई।
बंगाल का विभाजन
कुछ इस प्रकार किया गया कि आधुनिक भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता का आगाज हो
गया यानि पूर्वी बंगा मुस्लिम बहुल बनाया गया तथा लगातार सरकार की तरफ से
सांप्रदायिक विभाजन और हिंसा को बढ़ावा दिया गया।
भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस ने बंगाल विभाजन का प्रतिरोध स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन चलाकर किया। यही
स्वदेशी और बहिष्कार ने आगे गांधी जी के आंदोलन में भी अपनी भूमिका निभाई। स्वदेशी
के तहत भारतीय उद्योगों की शुरुआत की गई,
राष्ट्रीय
कॉलेज बनाए गए, कला के क्षेत्र
में भी प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय कला से प्रेरणा ग्रहण की गई। यह पहला ऐसा
आंदोलन था जो राष्ट्रीय छवि ग्रहण करता हुआ पूरे देश में फैल गया। इस आंदोलन में
शहरी महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया तथा शहर और गाँव के गरीब लोगों की भी
सीमित भागीदारी देखी गई।
यद्यपि 1908 ई. तक आते-आते स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन
कमज़ोर पड़ने लगा लेकिन इसने भविष्य के राष्ट्रीय आंदोलन के लिये नींव तैयार कर
दी। सर्वप्रथम आंदोलन की असफलता से निराश कुछ नवयुवकों ने व्यक्तिगत बहादुरी वाले
क्रांतिकारी आतंकवाद का रास्ता पकड़ लिया। इसके अलावा इस आंदोलन ने नरमदलीय
संवैधानिक राजनीति का खात्मा करके उग्र राष्ट्रीय आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया।
इस आंदोलन ने बड़ी संख्या में आम लोगों को राजनीतिक प्रशिक्षण दिया और उन्हें
स्वदेशी और बहिष्कार जैसे राजनीतिक हथियार से लैस किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं
कि उपनिवेशवाद के खिलाफ यह पहला सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन था जो भावी संघर्ष का बीज
बोकर समाप्त हुआ।
प्रश्न: 1920 के दशक से राष्ट्रीय आंदोलन ने कई वैचारिक
धाराओं को ग्रहण किया और अपना सामाजिक आधार बढ़ाया। विवेचना कीजिये।
(250 शब्द, 15 अंक)
Since the decade of the 1920s, the national
movement acquired various ideological strands and thereby expanded its social
base. Discuss.
उत्तर: 1920 का दशक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के लिये
विभिन्न विचारधाराओं के समामेलन द्वारा अपने सामाजिक आधार को विस्तृत करने का दशक
रहा। इसमें न केवल गांधी जी के असहयोग आंदोलन का योगदान था, अपितु श्रमिक संघों, समाजवादियों, क्रांतिकारियों के आंदोलन ने भी अपनी भूमिका निभाई।
1920 ई. में खिलाफत - असहयोग आंदोलन के आरंभ ने
राष्ट्रीय आंदोलन का विस्तार मुस्लिम वर्ग में भी कर दिया। गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन
को सहयोग देकर मुस्लिमों को राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदार बना दिया। इसके अलावे
उन्होंने छुआछूत को मिटाने का संकल्प लेकर असहयोग आंदोलन में दलित वर्ग की
भागीदारी भी सुनिश्चित की। गांधी जी के इस आश्वासन ने कि यदि असहयोग के
कार्यक्रमों पर पूरी तरह अमल किया गया तो एक वर्ष के भीतर आजादी मिल जाएगी ने
राष्ट्रीय आंदोलन की मानो दिशा ही बदल दी और उसे एक ऐसा आयाम दिया जिसमें अधिसंख्य
लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हुई। लेकिन 5
फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा कांड के पश्चात् 12 फरवरी,
1922 को असहयोग आंदोलन वापस लेकर गांधी जी ने आंदोलनकारियों के सपनों पर पानी फेर
दिया।
असहयोग आंदोलन की
समाप्ति के पश्चात् विधानसभाओं में प्रवेश को लेकर कांग्रेसी नेताओं में वैचारिक
मतभेद हो गए। सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने नेतृत्व में स्वराज पार्टी का गठन कर
सफलतापूर्वक विधानसभाओं में कांग्रेस के अप्रत्यक्ष सहयोग से स्वराज के प्रतिनिधि चुने
गए और वहाँ उन्होंने सरकार के प्रस्तावों का विरोध कर या राष्ट्रीय हितों के पक्ष
में प्रस्ताव पेश कर असहयोग की असफलता से उत्पन्न राजनीतिक शून्य को भरने का
प्रयास किया।
दूसरी तरफ
कांग्रेस के परिवर्तन विरोधी दल ने वल्लभ भाई पटेल, राज गोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में
रचनात्मक कार्यक्रम चलाकर छुआछूत को समाप्त करने का प्रयास किया। इसके अलावा लोगों
को खादी से जोड़कर स्वावलंबी बनाया गया। राष्ट्रीय विद्यालय खोले गए। शराब एवं
विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया गया। इसी दशक में महिलाओं ने भी अपनी अस्मिता की
पहचान के लिये पृथक आंदोलन चलाया और ऑल इंडिया विमेन्स कांफ्रेंस की स्थापना मारग्रेट
कर्जिस के नेतृत्व में की।
1920 ई.
में ही श्रमिकों के राष्ट्रीय संघ 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन
कांग्रेस' (AITUC) की स्थापना हुई जिसने मज़दूरों को
राष्ट्रीय स्तर पर न केवल संगठित किया बल्कि राष्ट्रीय नेताओं को अपना अध्यक्ष
बनाकर उसने राष्ट्रीय आंदोलन में श्रमिक वर्ग की भागीदारी को सुनिश्चित किया ।
जनजातियों में भी सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान आंदोलन की लहर देखी गई।
यही वह दशक है जब
कथित निचली जातियों में पूरे देश में अपने अधिकारों को लेकर आंदोलन चलाए गए । यथा- 1925 ई. का आत्मसम्मान आंदोलन। यद्यपि ये संकीर्ण और
सीमित थे लेकिन राजनैतिक चेतना के विकास
के सहयोगी बने और जब समय आया तो ये राष्ट्रीय आंदोलन के पक्ष में मज़बूती से खड़े हुए। इसी
समय 1917 ई. की रूसी क्रांति से प्रेरणा लेकर
मार्क्सवादी समाजवादी विचारों का भारत में प्रचार-प्रसार हो रहा था। 1925 ई. में ही कानपुर में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की गई।
1928 में कृषक और मज़दूर
संगठनों को मिलाकर 'अखिल भारतीय कामगार तथा कृषक दल' की स्थापना हुई। इस पार्टी का लक्ष्य था स्वतंत्रता प्राप्ति
आंदोलन में कांग्रेस का सहयोगकरना और भारत को समाजवाद के लक्ष्य तक पहुँचाना।
1920 का दशक एक अन्य विचारधारा और उससे जुड़ी
गतिविधियों का गवाह बना, जिसे क्रांतिकारी आंदोलन कहा गया। हिंदुस्तान
रिपब्लिक एसोसिएशन जो बाद
में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन बना, ने जनता को सामाजिक क्रांतिकारी और साम्यवादी सिद्धांतों की
शिक्षा देने का
कार्यक्रम बनाया। हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन का उद्देश्य था, उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण करता है।
इसके तहत रेलवे, उद्योगों आदि के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव
उसने रखा। उसने आजादी की शीघ्र प्राप्ति के लिये 'संगठित हथियार
बंद क्रांति' करने का भी
निर्णय लिया। यह विचार गांधी जी के
अहिंसात्मक आंदोलन द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के विचार के ठीक उलट था।
काकोरी कांड, सांडर्स हत्याकांड, केंद्रीय विधानसभा में बम विस्फोट जैसे
आतंकवादी कृत्यों को अंजाम देने के बाद शीघ्र ही क्रांतिकारी समझ गए कि इन बहादुरी
से भरे कृत्यों से विदेशी सत्ता को नहीं उखाड़ा जा सकता और शीघ्र ही उन्होंने
संगठित राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा आजादी हासिल करने का लक्ष्य अपना लिया। भगत सिंह
का विचार था कि 'क्रांति के लिये
रक्तरंजित संघर्ष आवश्यक नहीं है।'
इसी के साथ
भगतसिंह ने यह भी जोड़ा कि 'किसानों को सिर्फ
विदेशी शोषण कर्त्ताओं से ही मुक्ति नहीं पानी है बल्कि उन्हें पूंजीपतियों और
ज़मींदारों के चंगुल से भी मुक्त होना है।'
भगत
सिंह ने जनता को अंधविश्वास और धर्म की जकड़न से भी मुक्त होने और किसी भी प्रकार
की सांप्रदायिकता से दूर रहने की सलाह दी।
इस तरह यह प्रतीत
होता है कि 1920 का दशक विभिन्न
विचारधाराओं को समाहारित करता हुआ राष्ट्रीय आंदोलन के सामाजिक विस्तार का दशक बन
गया।
2019
प्रश्न: 1857 का विप्लव ब्रिटिश शासन के पूर्ववर्ती सौ
वर्षों में बार-बार घटित छोटे एवं बड़े स्थानीय विद्रोहों का चरमोत्कर्ष था।
सुस्पष्ट कीजिये ।
(150 शब्द,
10
अंक)
The 1857 Uprising was the culmination the
recurrent big and small local rebellions that had occurred in the preceding
hundred years of British rule. Elucidate.
उत्तर: 'The Peasant Armed: The Indian Rebellion of
1857
शीर्षक किताब को संपादित
करते हुए सी. ए. बेली ने एरिक स्टोक्स के इस वक्तव्य की ओर ध्यान दिलाया- “भारतीय
विद्रोह एक आंदोलन नहीं था, यह कई आंदोलनों
का समाहार था।
·
ब्रिटिश शासन की पहली शताब्दी के दौरान विद्रोहों की एक
लंबी श्रृंखला नज़र आती है, जिसे कैथलीन गफ
ने 'पुनःस्थापनावादी विद्रोह' (Restorative Rebellions) कहा है, क्योंकि वे असंतुष्ट स्थानीय शासकों, मुगल अधिकारियों या ज़मींदारों द्वारा शुरू
किये गए थे।
·
1857 से पहले की एक
सदी में सैकड़ों छोटे विद्रोहों के साथ ही 40
से
अधिक बड़े विद्रोह हुए। हालाँकि, ये विद्रोह
चरित्र और प्रभाव में स्थानीय थे और एक-दूसरे से अलग-थलग भी थे क्योंकि प्रत्येक
विद्रोह की अपनी एक अलग ही मंशा थी।
किसान विद्रोह
·
फकीर और संन्यासी विद्रोह, बंगाल और बिहार (1770-1820): ये व्यापक रूप से बार-बार हुए संघर्ष थे जिनके चरमोत्कर्ष
में 50,000 विद्रोही तक शामिल थे।
·
राजा चैत सिंह का विद्रोह, अवध (1778-81): इसका प्राथमिक लक्ष्य मौजूदा कृषि संबंधों को पुनर्बहाल
करना था और यह 1830 के दशक तक
बार-बार उभरता रहा।
·
पोलिगार विद्रोह, आंध्र प्रदेश (1799-1805): कंपनी की नीतियों
के विरुद्ध पोलिगार (सैन्य प्रमुखों के रूप में नियुक्त सामंत सरदार) विद्रोह में
किसान भी शामिल हुए और दमन से पहले यह विद्रोह एक बड़े पैमाने तक विस्तृत हो गया
था।
·
पाइका विद्रोह,
उड़ीसा (1817): कंपनी के शासन के विरुद्ध बख्शी जगबंधु के
नेतृत्व में हुआ सशस्त्र विद्रोह,
जिसे
'स्वतंत्रता का पहला युद्ध' कहा जाता है।
·
फराज़ी आंदोलन,
पूर्वी बंगाल (1838-1848
): यह पहला 'कर नहीं देने' का आंदोलन था जिसका नेतृत्व हाजी शरियतुल्लाह और दादू मियाँ
ने किया। यह स्थानीय प्रकृति का था और 1870
के
दशक तक बार-बार उभरता रहा।
आदिवासी विद्रोह
·
भील विद्रोह,
खानदेश (वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात), (1818-31): भीलों ने खानदेश
के ब्रिटिश कब्ज़े के खिलाफ विद्रोह किया,
जिसे
1819 में कुचल दिया गया, लेकिन 1831 तक संघर्षपूर्ण
स्थिति बनी रही।
·
कोल विद्रोह,
छोटा नागपुर और सिंहभूम क्षेत्र,
बिहार और उड़ीसा (1831-32): लूट और आगज़नी इस विद्रोह का प्रमुख स्वरूप
था (हत्याएँ नगण्य रहीं), लेकिन इस आंदोलन
का क्षेत्र , पर बड़ा प्रभाव
रहा।
·
संथाल विद्रोह,
पूर्वी भारत (1855-56): सबसे प्रभावी आदिवासी आंदोलन, जो ब्रिटिश घुसपैठ की नीतियों के विरुद्ध
बिहार, उड़ीसा और बंगाल के वृहत्
क्षेत्र में तेजी से फैला।
एक सदी तक चले आर्थिक शोषण, राजनीतिक अधीनता,
भेदभावपूर्ण
नीतियाँ, धार्मिक हस्तक्षेप और
विद्रोह का दमन अंतत: 1857 के विद्रोह के
रूप में चरमोत्कर्ष पर पहुँचा, जिसने कंपनी के
खिलाफ आवाज उठाने के लिये पूर्ववर्ती विद्रोहों के असंतुष्ट नेताओं को एक मंच
प्रदान किया।
प्रश्नः उन्नीसवीं
शताब्दी के 'भारतीय
पुनर्जागरण' और राष्ट्रीय
पहचान के उद्भव 'के मध्य
सहलग्नताओं का परीक्षण कीजिये।
(150 शब्द,
10
अंक)
Examine the linkages between nineteenth
century's 'Indian Renaissance' and the emergence of national identity.
उत्तर: भारत में
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार और एकीकरण के परिणामस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी की
भारतीय राजनीति और समाज में तब महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया जब भारतीयों ने अनुभव
किया कि ब्रिटिश हितों को बढ़ावा देने के लिये उनके हितों का बलिदान किया जा रहा
है।
आधुनिक पश्चिमी
संस्कृति के प्रभाव और विदेशी शक्ति के हाथों पराजय के बोध ने एक नए जागरण को जन्म
दिया। आधुनिक शैक्षणिक प्रणालियों ने शिक्षित वर्ग को समानता, स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद के विचारों से
परिचित कराया। यह वर्ग आधुनिक विज्ञान और तर्क व मानवतावाद के सिद्धांतों से
प्रभावित था। यह नई सांस्कृतिक चेतना,
जो
आशिक रूप से सामाजिक और धार्मिक सुधारों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई, 'भारतीय पुनर्जागरण' के रूप में प्रतिष्ठित हुई। इसने मूल्यों में
संक्रमण, सामाजिक संवेदनाओं में
परिवर्तन और सांस्कृतिक रचनात्मकता के पुनर्जन्म की कालावधि को चिह्नित किया।
समकालीन समस्याओं के समाधान के लिये अतीत का परीक्षण करना और परंपराओं का
मूल्यांकन करना इस आंदोलन का एक मूलभूत दृष्टिकोण था। राजा राममोहन राय द्वारा सती
प्रथा पर अपने विरोधियों को उत्तर देने के लिये हिंदू धर्मग्रंथों का उपयोग अथवा
ईश्वर चंद्र विद्यासागर का विधवा पुनर्विवाह अभियान या नारायण गुरु द्वारा
सर्वहितवाद (Universalism) का पुरजोर समर्थन
सामाजिक रूढ़िवाद, धार्मिक
अंधविश्वास और तर्कहीन अनुष्ठानों के उन्मूलन का उद्देश्य रखता था। पुनर्जागरण ने
उस भारतीय सभ्यता का ‘परिष्करण' और 'पुनः तलाश' की जो तर्कवाद,
अनुभववाद, एकेश्वरवाद और व्यक्तिवाद के यूरोपीय आदर्शों
के अनुरूप थी। इसका उद्देश्य यह दर्शाना था कि भारतीय सभ्यता किसी भी प्रकार
पश्चिमी सभ्यता से हीन नहीं थी, बल्कि एक आशय में, अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों में उससे श्रेष्ठ
ही थी। एक श्रेष्ठ राष्ट्रीय संस्कृति की इस खोज के प्रमाण देशभक्तिपूर्ण
क्षेत्रीय साहित्य के विकास, नए कला रूपों के
विकास, शास्त्रीय संगीत के शुद्ध
रूपों की खोज में और नारीत्व के नए आदर्शो के निर्माण में पाए जा सकते हैं।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, टैगोर, इकबाल और सुब्रमण्यम भारती के नेतृत्व में
चले साहित्यिक आंदोलनों ने राष्ट्रीय नेतृत्व के दौरान कल्पना और उत्साह को बढ़ाने
में योगदान दिया।
इस प्रकार, इस आंदोलन ने पश्चिम की भौतिक संस्कृति के
विपरीत भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक सार में निहित गर्व की भावना के द्वारा
भारतीयों को एक नए उभरते सार्वजनिक संदर्भ में औपनिवेशिक राज्य का सामना करने के
लिये प्रेरित किया। दूसरे शब्दों में,
इसने
आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की वैचारिक नींव तैयार की जो उन्नीसवीं शताब्दी के
उत्तरार्द्ध में मुखर रूप से प्रकट हुई।
प्रश्न: गांधीवादी
प्रावस्था के दौरान विभिन्न स्वरों ने राष्ट्रवादी आंदोलन को सुदृढ़ एवं समृद्ध
बनाया था । विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिये।
(250 शब्द,
12
अंक)
Many voices had strengthened and enriched the
nationalist movement during the Gandhian phase. Elaborate.
उत्तरः स्वतंत्रता के
लिये गांधीजी द्वारा जनता को प्रदान किया गया दृष्टिकोण तथा जिस प्रकार उन्होंने
सत्य एवं अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिये स्वतंत्रता सेनानियों का मार्गदर्शन
किया, उसके परिणामस्वरूप भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम में गांधीवादी प्रावस्था का योगदान निश्चितत: असाधारण है।
परंतु इसके साथ-साथ अन्य कारक भी विद्यमान थे जिन्होंने उनके प्रयासों को और
सुदृढ़ किया तथा राष्ट्रवादी आंदोलन में योगदान दिया। राष्ट्रवादी आंदोलन को मज़बूत
और समृद्ध करने वाले स्वर निम्नलिखित हैं-
·
ख़िलाफत आंदोलन (वर्ष 1919-22) की शुरुआत भारतीय मुस्लिमों द्वारा की गई थी जिसके माध्यम
से ब्रिटिश सरकार पर इस्लाम के खलीफा के रूप में ऑटोमन सुल्तान के अधिकार को
संरक्षित करने के लिये दबाव डाला जा सके। गांधीजी व कॉन्ग्रेस नेताओं ने इसे
हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करने तथा मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय आंदोलन में
लाने के एक अवसर के रूप में देखा।
·
कॉन्ग्रेस दल के भीतर स्वराजवादियों और नो चेंजर्स के बीच
वैचारिक मतभेदों ने बड़ा योगदान दिया। नो चेंजर्स ने हिंदू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता उन्मूलन आदि अपनी रचनात्मक
गतिविधियों को जारी रखा, जबकि
स्वराजवादियों ने 1923 में केंद्रीय
विधानसभा के चुनाव में जीतकर भारतीयों द्वारा राजनीतिक शून्य को भरा । फलस्वरूप
राष्ट्रीय आंदोलन ने पुनः अपनी शक्ति हासिल की।
·
वर्ष 1927 में जवाहरलाल
नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में मार्क्सवादी व अन्य समाजवादी विचारधारा
तेज़ी से विस्तारित हुई। वामपंथी वर्ग ने केवल स्वतंत्रता संग्राम के लिये अपनी
विचारधारा को सीमित नहीं किया, अपितु
पूंजीपतियों एवं ज़मींदारों द्वारा आंतरिक वर्ग उत्पीड़न का प्रश्न भी उठाया। इसने
देश के हाशिये पर खड़े लोगों व गरीबों के स्वरों को सुदृढ़ता प्रदान की तथा उन्हें
आंदोलनों में शामिल किया।
·
रामप्रसाद बिस्मिल,
चंद्रशेखर
आज़ाद और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के
लिये लोगों को एक अतिआवश्यक क्रांति के संबंध में सूचित करने का दायित्व लिया।
सूर्य सेन की अगुआई में बंगाल में हुआ उग्र आंदोलन क्रांतिकारी महिलाओं की भूमिका
के कारण उल्लेखनीय है।
·
राष्ट्रीय आंदोलन और कॉन्ग्रेस का एक अभिन्न अंग रहते हुए
आंदोलन में छात्र और किसान दल शामिल हुए और उन्होंने मार्क्सवादी एवं कम्युनिस्ट
विचारधाराओं का प्रचार किया। वर्ष 1928
में
सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली सत्याग्रह ने किसानों की चिंताओं को
उजागर किया।
·
अखिल भारतीय व्यापार संघ कॉन्ग्रेस (AITUC) के नेतृत्व में व्यापार संघवाद का तीव्रता से
विकास हुआ और वर्ष 1928 के दौरान कई
हड़तालें आयोजित हुई जिनमें खड़गपुर,
जमशेदपुर
औ बॉम्बे टेक्सटाइल मिल की हड़तालें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। व्यापारियों और
श्रमिकों ने वित्तीय सहायता देकर और आयातित वस्तुओं को अस्वीकार करके राष्ट्रीय
आंदोलन में भाग लिया।
·
देश में चल रहे क्रांति अभियानों से महिलाएँ भी अछूती नहीं
थीं। उन्होंने भी आगे आकर समान रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान दिया। कस्तूरबा
गांधी, विजय लक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफ अली, भीकाजी कामा इनमें प्रमुख हैं।
हालाँकि, विखंडन तथा आंतरिक वैचारिक मतभेदों ने कुछ हद
तक आंदोलन को कमज़ोर कर दिया, लेकिन इसने मुख्य
रूप से विविधता लाने और वैकल्पिक दृष्टिकोणों को शामिल कर आंदोलन को मज़बूत बनाया।
प्रश्न: 1940 के दशक के दौरान सत्ता हस्तांतरण की
प्रक्रिया को जटिल बनाने में ब्रिटिश साम्राज्यिक सत्ता की भूमिका का आकलन कीजिये।
(250 शब्द,
12
अंक)
Assess the role of British imperial power in
complicating the process of transfer of power during the 1940s.
उत्तर: अंग्रेज़ कभी भी
भारत छोड़ना नहीं चाहते थे, परंतु द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय संसाधनों एवं सेना बल के बदले में भारतीय राष्ट्रीय
कॉन्ग्रेस से किये स्वतंत्रता के वादे युद्ध के पश्चात् वित्तीय व राजनीतिक दबाव; ब्रिटेन में राजनीतिक शक्ति में परिवर्तन
(लेबर पार्टी); बढ़ते वैश्विक
दबाव तथा भारतीय नेताओं के प्रयासों को परास्त करने में असमर्थता के परिणामस्वरूप
अंततः उन्हें भारत छोड़ना पड़ा और भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। हालाँकि, सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया को इतना
जटिल व कठिन बनाने में ब्रिटेन सफल रहा जिससे भारत आज भी ग्रस्त है।
कैबिनेट मिशन
·
कैबिनेट मिशन योजना का मसौदा तैयार करने का दायित्व सर
स्टैफोर्ड क्रिप्स को सौंपा गया था,
जिसने
त्रि-स्तरीय प्रणाली, यथा- प्रांत, प्रांतीय समूहों तथा केंद्र सहित भारत के
लिये एक जटिल प्रणाली का प्रस्ताव रखा। इसमें केंद्र की सत्ता केवल विदेशी मामलों, रक्षा,
मुद्रा
और संचार तक ही सीमित थी।
·
प्रांतों के तीन प्रमुख समूह: हिंदू-बहुल प्रांतों को शामिल
करने के लिये ग्रुप ए; मुस्लिम बहुल
प्रांत (पश्चिमी पाकिस्तान) शामिल करने के लिये ग्रुप बी; और मुस्लिम बहुल बंगाल (पूर्वी पाकिस्तान) को
- शामिल करने के लिये ग्रुप सी का गठन किया गया।
·
फलतः नेहरू और जिन्ना,
दोनों
ने इस प्रणाली को अस्वीकृत कर दिया,
परंतु
जब लॉर्ड वेवेल ने नेहरू को अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में अधिकृत किया तब जिन्ना
ने बदले में दंगों एवं नरसंहार की घटनाओं को आयोजित करने की रणनीति अपना ली।
विभाजन
जुलाई 1947 में ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता
अधिनियम पारित किया, जिसने एक माह के
भीतर ही भारत और पाकिस्तान की सीमा के विभाजन के लिये 14-15 अगस्त,
1947 की मध्यरात्रि की घोषणा कर दी। यहाँ द्विराष्ट्र सिद्धांत एक महत्त्वपूर्ण
कारक था जिसने सांप्रदायिकता को जन्म दिया। इसके अलावा दोनों देशों के मध्य सीमाओं
का सीमांकन करने का कार्य ब्रिटिश वकील सर सिरिल रेडक्लिफ को दिया गया. जिसने पहले
कभी भारत का दौरा नहीं किया था और अपने निर्णय के सामाजिक व राजनीतिक परिणामों के
संबंध में अनभिज्ञ था। इसके प्रभावस्वरूप विभाजन के दौरान बड़े पैमाने पर
सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ घटित हुई और लोगों का अस्वाभाविक पलायन हुआ।
देशी रियासतों को
प्राप्त स्वायत्तता
वर्ष 1947 में स्वतंत्रता से पूर्व देशी रियासतों पर
ब्रिटिश राज और ब्रिटेन की देशी रियासतों के साथ सभी मौजूदा संधियाँ समाप्त हो गई।
चूँकि देशी रियासतें ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं थीं, इसलिये वे स्वतंत्र हो गई और उनके पास भारत
या पाकिस्तान में विलय करने या स्वतंत्र रहने का विकल्प मौजूद था। लॉर्ड माउंटबेटन, नेहरू और पटेल के प्रयासों के बाद भी कुछ
रियासतों, जैसे- कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद ने पहले से ही संकटपूर्ण
समय में कुछ गंभीर चुनौतियाँ उत्पन्न कीं।
निष्कर्ष
भारत जैसे
संसाधन-संपन्न राष्ट्र को छोड़ना ब्रिटेन के लिये कठिन था। इसलिये ब्रिटेन ने भारत
को स्वतंत्रता के साथ यहाँ कुछ विवादों को जन्म देना भी सुनिश्चित किया। भारत में
शरणार्थी समस्या, कश्मीर समस्या
आदि की जड़ें 1940 के दशक में
ब्रिटेन द्वारा उत्पन्न जटिलताओं में मौजूद हैं।
2018
प्रश्नः वर्तमान समय में
महात्मा गांधी के विचारों के महत्त्व पर प्रकाश डालिये।
(150 शब्द,
10
अंक)
Throw light on the significance of the
thoughts of Mahatma Gandhi in the present times.
उत्तर: भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी की विचारधारा का गहरा प्रभाव था। वस्तुतः गांधीजी
की विचारधारा का सैद्धांतिक आधार सत्य और अहिंसा था। वर्तमान संदर्भ में उनके
विचारों का व्यापक महत्त्व देखा जा सकता है।
गांधीजी ने सत्य, अहिंसा और अद्वैत की मूल भावना को साकार करने
के लिये सर्वोदय संबंधी अवधारणा का प्रतिपादन किया। सर्वोदय का आशय सभी का, सभी प्रकार से उत्थान या कल्याण से है
अर्थात् यहाँ जाति, धर्म, वर्ग,
समुदाय, लिंग,
संपत्ति, जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के
भेदभाव को स्वीकार नहीं किया जाता है। सर्वोदय के विभिन्न आयामों को अधोलिखित
बिंदुओं के तहत देखा जा सकता है-
आर्थिक पक्ष: गांधीजी सभी
व्यक्तियों के श्रम करने पर बल देते हैं ताकि उनका आर्थिक विकास सुनिश्चित हो सके।
फिर वे सभी के श्रम की कीमत एवं महत्ता को समान रूप से स्वीकार करते हैं। वे
आर्थिक न्याय हेतु ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का प्रतिपादन करते जिसके अनुरूप धनी
व्यक्ति को उतनी ही संपत्ति का उपयोग करना चाहिये जितनी उसको आवश्यकता है। शेष
संपत्ति का उपयोग उसे समाजहित में करना चाहिये। वे भारतीय संदर्भ में लघु एवं
कुटीर उद्योग का समर्थन करते हैं।
सामाजिक विचार: गांधीजी ने
आदर्श समाज की स्थापना पर बल
दिया
जिसमें अप्राकृतिक ऊँच-नीच का भाव,
अस्पृश्यता, छुआछूत,
स्त्री-पुरुष
भेद न हो। यद्यपि वे वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं। तथापि उसे केवल व्यक्ति के
आर्थिक जीवन एवं आजीविका प्राप्ति से संबंधित करते हैं। गांधीजी सभी क्षेत्रों में
स्त्रियों की भागीदारी पर बल देते हैं।
राजनीतिक पक्षः गांधीजी थोरो के
इस विचार से सहमत हैं कि सर्वोत्तम सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है। गांधीजी
सत्ता का विकेंद्रीकरण तथा राज्य के न्यूनतम कार्यक्षेत्र का समर्थन करते हैं जबकि
राज्य की प्रमुखता का खंडन करते हैं।
धार्मिक पक्षः गांधीजी धार्मिक
रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता
एवं धर्मांधता के विरोधी हैं। उनका धर्म से आशय सभी धर्मों में अंतर्निहित, मूल शाश्वत तत्त्व से है जो समस्त मानवों के
कल्याण का हेतु है। वे सर्वधर्म समभाव की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। गांधीजी
साधन एवं साध्य की पवित्रता पर बल देते हैं। उनके आनुसार साधन एवं साध्य में
अवियोज्य संबंध है। इसी तरह वे अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि मन, वचन और कर्म से किसी का अमंगल न होने देना ही
अहिंसा है। उनका मानना है कि समाज में परिवर्तन रक्तपूर्ण क्रांति से नहीं बल्कि
अहिंसात्मक पद्धति से संभव है।
वर्तमान में मॉब
लिंचिंग, सांप्रदायिक एवं जातीय
संघर्ष, अस्पृश्यता, से संबंधित समस्याएँ, बेरोज़गारी आदि के निराकरण में गांधीजी के
विचारों का व्यापक महत्त्व देखा जा सकता है।
2017
प्रश्नः सुस्पष्ट कीजिये
कि मध्य अठारहवीं शताब्दी का भारत विखंडित राज्यतंत्र की छाया से किस प्रकार
ग्रसित था।
(150 शब्द, 10 अंक)
Clarify how mid-eighteenth-century India was
beset with the spectre in the a fragmented polity.
उत्तर: मध्यकाल
में मुगलों द्वारा लगभग समूचे देश को एक सूत्र में बांध दिया गया था जिसके
परिणामस्वरूप भारतीय साम्राज्य अठारहवी शताब्दी के प्रारंभ तक स्थिर बना रहा, किंतु औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल
साम्राज्य तेजी से बिखरने लगा और अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते देश
क्षेत्रीय राज्यों में बाँट गया।
बंगाल में
मुर्शिद कुली खाँ और उसके उत्तराधिकारियों,
हैदराबाद
में चिन किलिच खाँ तथा अवध में सआदत खाँ के नेतृत्व में स्वतंत्र क्षेत्रीयो राज्यों की
स्थापना हुई। ये क्षेत्रीय राज्य मुगल केंद्रीय सत्ता की क्षीण होती शक्ति के
परिणामस्वरूप उभरकर आए। यही नहीं,
अठारहवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी कर्नाटक और मैसूर जैसी क्षेत्रीय शक्तियों का उदय
हुआ। कर्नाटक धीरे-धीरे मुगल सूवेदारों के कब्जे से निकल गया था और 1761 में हैदर अली ने मैसूर के राजा से गद्दी
छीनकर राज्य पर अधिकार कर लिया। इन क्षेत्रीय शक्तियों के उभरने में अंग्रेजों तथा अन्य
यूरोपीय शक्तियों के आपसी संघर्षो की भी भूमिका रही। अठारहवीं शताब्दी में ही
पंजाब में सिख, राजस्थान में
राजपूत तथा महाराष्ट्र व मध्य भारत में मराठे भी एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप
में मजबूत हो रहे थे। अठारहवीं सदी के अंतिम दौर में पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह
ने एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की।
इस प्रकार
अठारहवीं सदी में भारत की राजनीतिक एकता विखंडित हो गई और यही राजनीतिक अस्थिरता
अंतत: भारत में अंग्रेजी विजय का कारण साबित हुई।
प्रश्न: क्या कारण था कि
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक आते-आते 'नरमदलीय' अपनी घोषित विचारधारा तथा राजनीतिक लक्ष्यों
के प्रति राष्ट्र के विश्वास को जगाने में असफल हो गए थे?
(150 शब्द, 10 अंक)
Why did the 'Moderates' fail to carry conviction with the
nation about their proclaimed ideology and political goals by the end of the
nineteenth century?
उत्तर: 19वीं शताब्दी
के मध्य से ही भारत में राजनीतिक चेतना के नए युग की शुरुआत हो गई थी, किंतु इसे संस्थागत स्वरूप कॉन्ग्रेस की
स्थापना के बाद मिला। कॉन्ग्रेस के आरंभिक 20 वर्षों को 'नरम दलीय' दौर के नाम से जाना जाता है।
नरमदलीय विचारधारा के
नेता ब्रिटिश विरोधी नहीं थे। उनका मानना था कि यदि वे अहिंसक तथा संवैधानिक तरीके
से अपनी मांगों को सरकार के सामने रखेंगे तो उनकी न्यायोचित मांगों को अवश्य मान न
लिया जाएगा।
उनके राजनीतिक लक्ष्य थे-
प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी को बढ़ाना,
विधानसभाओं
को ज्यादा अधिकार दिलवाना विधानसभाओं के ,
सदस्यों
को निर्वाचित करके विधानसभाओं को प्रतिनिधि संस्थाएँ बनाना, जिन प्रांतों में विधानसभाएँ नहीं हैं वहाँ
इनकी स्थापना किया जाना, जाति, धर्म, वर्ग,
समुदाय, लिंग,
संपत्ति, जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के
भेदभाव को स्वीकार नहीं किया जाता है। सर्वोदय के विभिन्न आयामों को अधोलिखित
बिंदुओं के तहत देखा जा सकता है-
आर्थिक पक्षः गांधीजी सभी
व्यक्तियों के श्रम करने पर बल देते हैं ताकि उनका आर्थिक विकास सुनिश्चित हो सके।
फिर वे सभी के श्रम की कीमत एवं महत्ता को समान रूप से स्वीकार करते हैं। वे
आर्थिक न्याय हेतु ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं जिसके अनुरूप धनी
व्यक्ति को उतनी ही संपत्ति का उपयोग करना चाहिये जितनी उसको आवश्यकता है। शेष
संपत्ति का उपयोग उसे समाजहित में करना चाहिये। वे भारतीय संदर्भ में लघु एवं
कुटीर उद्योग का समर्थन करते हैं।
सामाजिक विचारः गांधीजी ने
आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया जिसमें अप्राकृतिक ऊँच-नीच का भाव, अस्पृश्यता, छुआछूत, स्त्री-पुरुष भेद
न हो। यद्यपि वे वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं तथापि उसे केवल व्यक्ति के
आर्थिक जीवन एवं आजीविका प्राप्ति से संबंधित करते हैं। गांधीजी सभी क्षेत्रों में
स्त्रियों की भागीदारी पर बल देते हैं।
राजनीतिक पक्षः गांधीजी, थोरो के इस विचार से सहमत हैं कि सर्वोत्तम
सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है। गांधीजी सत्ता का विकेंद्रीकरण तथा राज्य के
न्यूनतम कार्यक्षेत्र का समर्थन करते हैं जबकि राज्य की प्रमुखता का खंडन करते
हैं।
धार्मिक पक्षः गांधीजी धार्मिक
रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता
एवं धर्मांधता के विरोधी हैं। उनका धर्म से आशय सभी धर्मों में अंतर्निहित, मूल शाश्वत तत्त्व से है जो समस्त मानवों के
कल्याण का हेतु है। वे सर्वधर्म समभाव की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। गांधीजी
साधन एवं साध्य की पवित्रता पर बल देते हैं। उनके आनुसार साधन एवं साध्य में
अवियोज्य संबंध है। इसी तरह वे अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि मन, वचन और कर्म से किसी का अमंगल न होने देना ही
अहिंसा है। उनका मानना है कि समाज में परिवर्तन रक्तपूर्ण क्रांति से नहीं बल्कि
अहिंसात्मक पद्धति से संभव है।
वर्तमान में मॉब लिंचिंग, सांप्रदायिक एवं जातीय संघर्ष, अस्पृश्यता, SCékST से संबंधित
समस्याएँ, बेरोज़गारी आदि के
निराकरण में गांधीजी के विचारों का व्यापक महत्त्व देखा जा सकता है।
भू-राजस्व में कमी किया जाना तथा भारतीय धन
के बहिर्गमन को रोका जाना इत्यादि।
कॉन्ग्रेस की अपेक्षाओं
के विपरीत ब्रिटिश सरकार ने कॉन्ग्रेस की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया। 1892 के एक्ट से भी भारतीय जनता को निराशा मिली। 19वीं सदी के अंत तक ब्रिटिश सरकार ने खुली
घोषणा की कि भारतीय किसी भी महत्त्वपूर्ण पद के योग्य नहीं हैं।
यद्यपि नरमदलीय मांगों को सरकार ने नहीं माना
तथा गरमदलीय नेताओं ने उनकी नीति को अनुनय-विनय की नीति कहकर उनकी आलोचना भी की, तथापि इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि
आरंभिक 20 वर्षों में कॉन्ग्रेस ने
लोगों को एक व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य के लिये एकजुट किया जिससे क्रमबद्ध
राजनीतिक विकास की शुरुआत हुई।
प्रश्नः परीक्षण कीजिये
कि औपनिवेशिक भारत में पारंपरिक कारीगरी उद्योग के पतन ने किस प्रकार ग्रामीण
अर्थव्यवस्था को अपंग बना दिया?
(250 शब्द,
15 अंक)
Examine
how the decline of traditional artisanal industry in colonial India crippled
the rural economy.
उत्तर: ब्रिटिश विजय के
परिणामस्वरूप अंग्रेज़ों ने जो आर्थिक नीतियाँ अपनाई उनसे भारतीय अर्थव्यवस्था, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गई।
अंग्रेज़ों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के परंपरागत ढाँचे को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर
दिया। पारंपरिक कारीगरी उद्योग का पतन हो गया जिसके परिणामस्वरूप स्वावलंबी ग्राम
अर्थव्यवस्था की बुनियाद पर चोट पहुँची।
औपनिवेशिक भारत में न
केवल शहरी हस्तशिल्पों और कारीगरी उद्योगों का बल्कि ग्रामीण हस्तशिल्पों और
दस्तकारियों का भी पतन हो गया। सूत कातने तथा सूती कपड़ा बुनने के उद्योगों को
सबसे अधिक धक्का लगा। रेशमी और ऊनी वस्त्र उद्योगों की हालत भी कोई अच्छी नहीं
रही। लोहा, मिट्टी के बर्तन, शीशा,
कागज़, धातु,
तेलघानी, चमड़ा शोधन और रँगाई उद्योगों की हालत भी
बुरी हो गई।
तबाह हस्तशिल्पी और
दस्तकार वैकल्पिक रोजगार पाने में असफल रहे। उनके सामने एक ही रास्ता था और वह था
कृषि को अपनाना। इससे कृषि पर दबाव अत्यधिक बढ़ गया। इसके अलावा, ग्रामीण शिल्पों के धीरे-धीरे विनाश ने
ग्रामीण क्षेत्र में कृषि तथा घरेलू उद्योग की एकता को तोड़ दिया और इस प्रकार
स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विनाश में योगदान दिया। करोड़ों किसानों, जो अंशकालिक कताई तथा बुनाई द्वारा अपनी आय
को पूरा करते थे, को अब मुख्य रूप
से खेती पर निर्भर रहना पड़ रहा था। इसी प्रकार करोड़ों दस्तकार अपनी परंपरागत
जीविका को खो बैठे तथा खेतिहर मज़दूर या छोटे काश्तकार बन गए जिनके पास छोटे-छोटे
खेत ही थे। इसके चलते कृषि योग्य भूमि पर बोझ बढ़ गया।
औपनिवेशिक काल में
आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पतन और कृषि पर बढ़ते दबाव के चलते ही भारत को
घोर गरीबी और बार-बार पड़ने वाले अकालों का सामना करना पड़ा।
प्रश्न: पिछली शताब्दी
के तीसरे दशक से भारतीय स्वतंत्रता की स्वप्न दृष्टि के साथ संबद्ध हो गए नए
उद्देश्यों के महत्त्व को उजागर कीजिये।
(250 शब्द, 15 अंक)
Highlight
the importance of the new objectives that added to the vision of Indian
independence since twenties of the last century.
उत्तरः बीसवीं शताब्दी
के तीसरे दशक से भारतीय स्वतंत्रता की स्वप्नदृष्टि के साथ अनेक उद्देश्य संबद्ध
हो गए जैसे गांधीजी ने अब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विशाल जन भागीदारी की
वकालत की साथ ही उन्होंने महिलाओं और अछूतोद्धार के कार्यक्रम को भी स्वतंत्रता
आंदोलन के साथ ही समान महत्त्व प्रदान किया। इस समय देश की राजनीति में समाजवादी
और साम्यवादी तत्त्वों का भी समावेश जिसके मुख्य प्रणेता जवाहरलाल नेहरू तथा बोस
थे। स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ अब किसानों तथा मज़दूरों के उत्थान और स्वतंत्रता
की बात की जाने लगी।
भारतीय स्वतंत्रता के साथ
संबद्ध हुए ये नए उद्देश्य अत्यधिक या महत्त्वपूर्ण साबित हुए। 1920 के दशक से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन वे भारतीय
जनता के एक विशाल हिस्से को राजनीतिक गतिविधि के अंदर खींचने, सक्रिय करने और उन्हें राजनीतिक शिक्षा देने
में सफल हुआ। आम जनता की राजनीतिक सक्रियता के लंबे अनुभवों को देखते हुए ही
भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों ने भारतीय जनता की राजनीतिक क्षमता पर पूर्ण विश्वास
किया और व्यापक अशिक्षा एवं गरीबी के बावजूद बिना किसी हिचक के वयस्क मताधिकार को
लागू किया।
1920 के दशक के अंतिम दिनों से ही जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, कॉन्ग्रेस सोशलिस्टों, कम्युनिस्टों व क्रांतिकारियों के कठिन
प्रयासों द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को जो समाजवादी विचारधारा के प्रति झुकाव देने
की कोशिश की गई थी उसी ने आज़ादी के बाद एक समाजवादी भारत के निर्माण के स्वप्न को
प्रोत्साहित किया। साथ ही, स्वतंत्रता
आंदोलन के दौरान अछूतों और महिलाओं के उत्थान के लिये चलाए गए कार्यक्रमों का ही
परिणाम था कि स्वतंत्रता के पश्चात् इन वंचित वर्गों के उत्थान के लिये नीतियाँ
बनाई जा सकीं और सामाजिक न्याय की विचारधारा को मज़बूती मिली।
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